Book Title: Mahakavi Samay Sundar aur unka Chattisi Sahitya
Author(s): Satyanarayan Swami
Publisher: Z_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf

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Page 2
________________ ३२६ ] महाकवि समयसुंदर विरचित सात छत्तीसियां उपलब्ध हैं जो इस प्रकार हैं १. सत्यासीया दुष्काल वर्णन छत्तीसी २. प्रस्ताव सवैया छत्तीसी ३. क्षमा छत्तीसी ४. कर्म छत्तीसी ५. पुण्य छत्तीसी ६. संतोष छत्तीसी और ७. प्रालोयरणा छत्तीसी । (१) सत्यासिया दुष्काल वर्णन छत्तीसी प्रस्तुत छत्तीसी की रचना महाकवि ने वि० सं० १६८७-८८ में गुजरात में की। ऋद्धि-सिद्धि से सर्वथा संपन्न गुजरात प्रदेश में वि० स० १६५७ में बड़ा भयंकर दुष्काल पड़ा। बरसात का नामोनिशान न था। पनघोर पटायें पिर घुमड़कर भाती और कृषक समुदाय को चिढ़ाकर गायब हो जाती थीं। खेत सूखे पड़े थे । पानी के अभाव में लोगों में खलबली मच गई ।' खाने की समस्या विकट रूप में आ पहुँची । पशुनों को तो कुछ 'शों में, घास पास के नगरों की सीमाओं पर जहां थोड़ी-बहुत वर्षा हुई थी, चरने के लि भेज दिया गया, परंतु लोगों को अपने ही भोजन की व्यवस्था करना मुश्किल हो गया । खाद्य सामग्री के लिये परस्पर लूट-मार होने लगी महंगाई का पार न रहा। प्रजावत्सल नरेशों ने अपनी जनता के लिये सस्ते अनाज की व्यवस्था की भी तो लोभी हाकिमों ने अपने पास जमाकर उसे महंगे मोल बेचना प्रारंभ कर दिया था। ૨ " सी स्थिति में लोगों को प्राथा पाव अन्न तक मिलना भी दुर्लभ हो गया। मान त्यागकर भीख मांगने से भी लोगों का पेट नहीं भरता था । वृक्षों के पते कांटी (पास विशेष) और छालें जाने की भी नौबत आई। जूठन खाना-पीना तो सामान्य बात हो गई थी । 3 1 सत्यनारायण स्वामी प्रेम. प्रे. प्रेम और ममत्व नाम की कोई चीज उस समय नहीं रह गई थी। पति पत्नि को बेटा बाप को, बहन भाई को, भाई बहन को छोड़-छोड़कर परदेश को भागने लगे । परिवार का सम्बन्ध अन्न प्रेम के आगे गौण हो गया । अपने ग्रात्मज, आंखों के तारे प्यारे पुत्र को बेचना पिता के लिए रंचमात्र भी दुष्कर नहीं था । १. घटा करी घनघोर, पिरण वूठो नहीं पापी । खलक लोग सह लभल्या, जीवई किम जलबाहिरा; 'समयसुदर' कहइ सत्यासीया, ते ऋतूत सहू ताहरा |३|| ( समयसु दर कृति कुसुमांजलि, पृ० ५०१ ) २. भला हुंता भूषाल, पिता जिम पृथ्वी पालइ नगर लोग नरनारी, नेह सुं नजरि निहालइ । हाकिम नइ तो लोभ, धान ते पोते धारद महा मुंहगा करि मोल, देखि बेचइ दरबारइ ।। ( समयसु दर कृति कुसुमांजलि, छंद ६, पृ० ५०२ ) ३. प्र पा न लहै मन, मला नर थया भिखारी; मूकी दीघउ मान, पेट पिए भरइ न भारी । पमाडीयाना पान के बगरी नई कांटी; खावे सेजड़ छोड, शालिस सवला वांटी। अन्नरूण चुरणइ इठि में, पीयइ इठि पुसली मरी । समयसुंदर कहइ सत्यासीया, अह अवस्था तइ करी ।।८।। (स. कृ. कु. पृ० ५०३ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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