Book Title: Mahakavi Daulatram Kasliwal Vyaktitva Evam Krutitva Author(s): Kasturchand Kasliwal Publisher: Sohanlal Sogani Jaipur View full book textPage 9
________________ के कारण स्वाभाविक ही था । खड़ी बोली और ब्रज भाषानों के विकास क्रम में इस प्रकार को भाषा का प्रचलन, उसकी मुख्य-मुख्य कृतिया और उसके समय विशेष के स्वरूप तथा मानक खड़ी बोली के विकास क्रम में उसका योगदान, अध्ययन के वे नए आयाम हैं, जिनकी प्रोर शोघाधियों का ध्यान जाना चाहिए । यह अहाँ हमारी सांस्कृतिक परम्परामों के प्रसार का घोतक है, वहां तदयुगीन एक सामान्य भाषा की आवश्यकता पूर्ति की घोर उल्लेखनीय कदम भी। दौलतरामजी का काव्य जैन धर्म से प्रभावित तो है किन्तु उनकी कृतियों में सुन्दर काव्यत्व के भी दर्शन होते हैं । जैन काव्यों की चरित परम्परा में उनके 'जीवन्धर स्वामी चरित', 'श्रेणिक परित' और श्रीपाल चरित उल्लेखनीय हैं । यद्यपि ये अधिकांश में पद्यात्मक कृतियां हैं. नथापि अनेक स्थलों पर रूप, स्थिति और पनोभावनाप्रो के मोहक चित्र इन में मिलते हैं। काव्य, प्रध्यात्म और रूप की दृष्टि से दौलतरामजी की सर्वाधिक महत्वपूर्ण रचनाए विवेक विलास और अध्यात्म-बारहखड़ी हैं। ये दोनों कृतियां हिन्दी को दो विषिष्ट परम्पराओं-रूपक काध तथा फको काव्य या बावनी काव्य या बारह खड़ी काव्य परम्परा की न केवल महत्वपूर्ण कृतियां ही हैं, अपितु उनके प्रौढ़ रूप का दिमाग की हैं। विपास में बोई है, जो हा काव्य परम्परा में भी विशेष रूपेण उल्लेखनीय है । जन कवियों द्वारा लिखित रूपक या प्रतीक काव्य की परम्परा पुरानी है । हिन्दी में पन्द्रहवीं शताब्दी उत्तगर्व के प्रारंभ में राजशेखर सूरि रचित 'त्रिभुवन दीप प्रबन्ध' (अपर नाम प्रबोष चिन्तामणि या परमहस प्रबन्ध) इस प्रकार की एक महत्वपूर्ण रचना है। इस परम्परा में जैन और जनेतर सभी कवियों ने योगदान दिया है किन्तु सर्वाधिक कृतियां जैन कवियों की ही मिलती हैं। जेनेतर कवियों में इस कोटि की रचना अधिकाशतः विभिन्न सम्प्रदायों के कवियों ने अध्यात्म-दृष्टि से की हैं, जिनमें विष्णोई कवि सुरजनदासजी कृत 'ज्ञान महातम' और 'ज्ञान तिलक' तथा सेवादास रचित 'पिसण संधार,' प्रबन्धाभास बड़े रूपक काव्य है। ६२४ दोहों में रचित विवेक विलास इस परम्परा को सर्वाधिक बड़ी और महत्वपूर्ण रचना है । इसी प्रकार कदको या बारहखड़ी काव्य भी बहुत लिखा गया है जिसमें नेतर कवियों का योगदान, रूपक काव्यों की तुलना में बहुत ज्यादा है। ऐसी काव्य परम्परा में प्रस्तुत कवि की अध्यात्म बारहखड़ी का महत्त्व स्वयं स्पष्ट है। पार सपाटन पोर व्याख्या के क्षेत्र में भी दौलतराम जी के परमात्मप्रकाश भाषा टीका का विशेष महत्व है। इसमें उन्होंने परमात्म प्रकाश के पाठ के साथ प्रत्येक छन्द की विस्तार से टीका, जिसे व्याख्या कह सकते है, की है । इम कृति के पाय-संपादन के लिए दौलतरामनी द्वारा प्रस्तुत किया गया पाठPage Navigation
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