Book Title: Mahakavi Daulatram Kasliwal Vyaktitva Evam Krutitva
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Sohanlal Sogani Jaipur

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Page 7
________________ सियों का चित्रण, राम और कृष्ण के वीर और उद्धारक रूपों का विशेषतः चत्रणा, डिगल गीत दोहा और भीमागी प्रादि छन्दों का प्रभूत प्रयोग प्रादि । पजी में जहां राधा कृष्ण और गोपी कृष्णा से सम्बधित अनेक लीलाओं और चरित्र का वर्णन मिलता है, यहां राजस्थानी में रुक्मिणि-कृष्ण प्रबन्ध अथवा रामग्ति नियमाञ्चों का पता है । यद्यपि भगवान के सभी अवतार सभी जगह मान्य है तथापि उल्लिखित कारणों से राजस्थानी में जहाँ भगपान के उधारक और वीर रूप को विशेष रूप से लिया गया है, वहां बजी में विशेषत: कृष्ण के बाल अथवा राधा कृष्ण या गोपी कृष्ण रूप को । यह तो एक छोटा सा उदाहरण है जो यह सिद्ध करता है कि व्यापक रूप से हिन्दी साहित्व के सम्यक् प्रौर मांगोपांग अध्ययन में प्रत्येक क्षेत्र में लिखे गये प्रत्येक प्रकार के हिन्दी साहित्य का पालोड़न-बिलोड़न और बहा प्रचलित विशेष परम्परामों को समझने की एक महती मावश्यकता है । इस संदर्भ में एक और बात की ओर संकेत करना भी प्रावश्यक है। ऐमी अनेक समृद्ध साहित्यिक परम्पनाएं पौर काळय' ग्रन्य हैं, जिनका इस दृष्टि से हिन्दी साहित्य के इतिहास ग्रन्थों में समुचित मूल्यांकन नहीं हुया है। कइयों का तो नामोल्लेख मात्र भी नहीं है । विद्वानों के पुनः विचारार्थ इन परम्परामों की अोर ध्यान दिलाया जा सकता है----जैन साहित्य परम्पग, संत काब्य परम्परा, राम और कृष्ण काम परम्परा, ऐतिहासिक और वीर रसास्मक काम्य परम्परा, विभिन्न जीवन्त सम्प्रदायों का साम्प्रदायिकता में मुक्त साहित्य और उसकी सतत प्रवाहमान परम्परा । 'पादिकाल' के जाली या परवर्ती सिद्ध हुए काव्यों का मथाकालों में सन्निवेश, भक्ति काल में अनेकशः धीर काच्यों तथा लौकिक प्रेम काठयों प्रादि का विवेचन, रीतिकाल में पूर्वकालों की परम्परागों के अतिरिस, नवीन उद्भूत सम्प्रदायों के साम्प्रदायिकता मुक्त काव्यों, राष्ट्रीय काव्यों का समावेश आदि प्रादि । ये कुछ ऐसी बातें हैं जिनको हिन्दी साहित्य के इतिहास में सम्यक स्थान मिलना चाहिए । अब यह बात अनेक विद्वानों द्वारा मान ली गई है कि जिन रचनामों में साहित्यिक गुण हैं पौर जिनका प्रेरणा स्रोत धर्म है, साहित्यिक, इतिहास में विवेचनीय है। ___ ऊपर हिन्दी साहित्य के इतिहास में जैन साहित्य के सन्निवेश और मिथित भाषा का उस्लेम्न हो चुका है । कहना न होगा कि जैन साहित्य के अनेक कवि और कृतियाँ इस दृष्टि से हिन्दी साहित्य के इतिहास में विवेचनीय हैं। भाषा की दृष्टि से भी जैन साहित्य का गौरवपूर्ण स्थान है। हिन्दी की अन्यान्य प्रमुख काव्यधारामों की माति, जैन साहित्य धार। भी किसी न किसी स्प में सतत प्रवहमान रही है । आदिकाल से लेकर प्रद्य पर्यन्त जन साहित्य की

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