Book Title: Leshya aur Manovigyan
Author(s): Shanta Jain
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 12
________________ 2 4. हारिद्राभिजाति - श्वेत वस्त्रधारी या निर्वस्त्र । 5. शुक्लाभिजाति - आजीवक श्रमण- श्रमणियों का समूह । 6. परम शुक्लाभिजाति गोशालक प्रभृति का समूह । अभिजात संबंधी जितने भी प्रकरण त्रिपिटकों में हैं, उनमें सबसे अधिक प्रामाणिक सामञ्जफल सुत्त को माना गया है।' इससे स्पष्ट है कि अभिजातियों का संबंध मूलतः गोशालक से है और यही कारण है कि अभिजातियों में सर्वोपरि स्थान आजीवकों और उनमें प्रवर्त्तकों का रहा है 1 लेश्या और मनोविज्ञान आजीवक आचार्य, नन्द, वत्स, कृष, सांस्कृत्य, मस्करी, इस वर्गीकरण में आजीवकों द्वारा निर्णीत मानव की छह अभिजातियां तथा जैन-दर्शन में छह लेश्याओं का वर्णन कितना पारस्परिक सादृश्य रखता है, यह चिन्तन का विषय है । पाश्चात्य विद्वानों में प्रो. ल्यूमेन ने गोशालक के इस वर्गीकरण का घनिष्ठ सादृश्य जैनों के लेश्या सिद्धान्त से निरूपित किया है । पर डॉ. जेकोबी का कहना है कि उनका ऐसा विश्वास है कि जैनों ने यह सिद्धान्त आजीवकों से लिया और आवश्यक परिवर्तन के साथ अपने सिद्धान्तों में समाविष्ट कर लिया है। उनका तात्पर्य है कि जैन सिद्धान्त में लेश्या सिद्धान्त एक आगन्तुक विषय है, जिसे अपने कर्म सिद्धान्त में जैन दार्शनिकों ने स्थान दिया । डॉ. हर्नले और डॉ. बाशम जैसे विद्वान् अभिजाति और लेश्या की मान्यताओं में पारस्परिक प्रभाव नहीं मानते हैं जबकि जेकोबी, सुब्रीग आदि विद्वानों की मान्यता है कि लेश्या की मान्यता अभिजाति की मान्यता है। प्रो. ल्यूमेन और डॉ. जेकोबी ने मनुष्यों को छह वर्गों में विभक्त करने वाली अभिजातियों को गोशालक द्वारा प्रतिपादित माना है पर अंगुत्तरनिकाय ' में इसे पूरणकाश्यप द्वारा किया गया वर्गीकरण माना है जबकि दीघनिकाय के सामफल सुत्त में, संयुक्तनिकाय के खन्धवग्ग में और मज्झिमनिकाय के सन्दकसुत्त में इन्हें गोशालक द्वारा निरूपित बताया गया है। केवल अंगुत्तर निकाय के सिवाय पूरणकाश्यप का नाम कहीं भी उल्लेख नहीं है । त्रिपिटकों के व्याख्याता आचार्य बुद्धघोष ' ने भी अनेक स्थलों पर अभिजातियों का संबंध केवल गोशालक से जोड़ा है। गौतम बुद्ध ने भी आनन्द के समक्ष छह अभिजातियों की प्रज्ञापना की। 1. That in the Digha Nikaya A Completenes and Consistency Lacking in the rest, and perhaps represents the original source of the other sources. A.L. Basham, History and Doctrines of Ajivikas, p. 23 2. Sacred Books of the East, Vol. XLV, Introduction, p XXX 3. अंगुत्तरनिकाय 6/6/57 4. सुमंगलविलासिनी, खण्ड 1, पृ. 162 5. अंगुत्तरनिकाय 6/6/3, भाग 3, पृ. 35, 93-94 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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