Book Title: Leshya Dwara Vyaktitva Rupantaran
Author(s): Shanta Jain
Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 2
________________ १५६ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्रा साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड धर्म, कर्म, गति, प्राणि, प्रकृति आदि को विशिष्ट वर्गों के रूप में व्यक्त कर वणित किया है। सारणी १ से स्पष्ट है कि महाभारत और जनों का प्राणियों एवं अन्तर्भावों का विभाजन समान-सा लगता है क्योंकि इन्हें सुख, दुःख और सहिष्णुता से सम्बन्धित किया गया है। फिर भी, जैनाचार्यों का अन्तर्भावों का लेश्या पर आधारित निरूपण तीक्ष्ण एवं गहन विचारणा का निरूपण है। इसमें वर्ण का केवल भौतिक रूप ( द्रव्य लेश्या) ही नहीं लिया गया है, उसका भावात्मक चरित्र भी प्रकट किया गया है। जैन शास्त्रों के अवलोकन से पता चलता है कि 'लेश्या' शब्द के अर्थ का भौतिक रूप से लेकर आध्यात्मिक रूप तक संभवतः क्रमिक विकास हुआ है। यह सारणी २ से स्पष्ट होता है। संभवतः रूप-रसादि. में वर्ण के सर्वाधिक दृश्य एवं प्रभावकारी होने से ही जीवों के बहिरंग एवं अन्तर-रूपों को मनोवैज्ञानिक रूप से प्रकट करने के लिये उसे चुना गया। मानव के अन्तर-रूप को उसकी बहिरंग बहुरंगी आमा प्रकट रूप से व्यक्त करती है । यह बहिरंग रूप का आभा द्रव्य लेश्या कहलाती है, यह भौतिक है, पोद्गलिक है। देवेन्द्र मुनि के अनुसार, इसके सारण २. लेश्या शब्द के अर्थ १. वर्ण, प्रभा, रंग प्रज्ञापना, जीवाभिगम आदि १. आणविक आभा, कान्ति, प्रभा, छाया उत्तराध्ययन वृत्ति २. मनोयोग, विचार, प्रशस्त वृत्ति आचारांग ३. छाया पुद्गलों से प्रभावित होने वाले जीव परिणाम भगवती आराधना ४. आत्मा और कर्म का लेपक या आत्मीकरण माध्यम गोम्मटसार जीवकांड ५. वर्ण और आणविक आमा ६. आत्मा और कर्म का सम्बन्ध करने वाली प्रवृत्ति वीरसेन ७. कषायों के उदय से अनुरंजित योग प्रवृत्ति पूज्यपाद, अकलंक, नेमचन्द्र ८. पौद्गलिक पर्यावरण, पुद्गल समूह देवेन्द्र मुनि पुद्गल कषाय, मन और भाषा से स्थूल एवं वैक्रियक शरीर, शब्द, रूप, रस, गंध आदि से सूक्ष्म हैं। यह मन्तव्य पुनर्विचार के योग्य है क्योंकि रस, गंध और मन के पुद्गलों को कोटि अणुमय होतो है। इनका विस्तार १०-“ सेमी० के लगभग माना जा सकता है। इसके विपर्यास में रूप, कषाय, शब्द या भाषा ऊर्जारूप होते हैं। इनका विस्तार अणुओं से पर्याप्त अल्पतर होता है। इसलिये विचार एवं प्रवृत्तियों के पुद्गल उपरोक्त दोनों कोटियों से सूक्ष्मतर होते हैं। इनके द्रव्यमन से स्थूलतर होने का प्रश्न ही नहीं उठता । यह सही है कि द्रव्यलेश्या के पुद्गल भावलेश्या से स्थूल होते हैं। फिर भी ये कर्म पुद्गलों से सूक्ष्मतर होते हैं । भगवती सूत्र में भी बताया गया है कि कामणशरीर, मनयोग एवं वचनयोग चतुस्पर्शी (ऊर्जात्मक) होते हैं और औदारिक वैक्रियक, आहारक एवं तंजस शरीर अष्टस्पर्शी होते हैं । लेश्याओं के विवरण के विविधरूप और महत्वपूर्ण विवरण जैन शास्त्रों में लेश्याओं का विस्तृत वर्णन पाया जाता है। उत्तराध्ययन में इन्हें ग्यारह प्रकार से, अकलंक" और नेमचंद्र ने सोलह प्रकार से और प्रज्ञापना में इसे पन्द्रह अधिकारों के रूप में वर्णित किया गया है। इनमें अनेक प्रकार समान हैं ( सारणी ३ ) पर कुछ विशेष भो हैं। इन पर चर्चा करना इस लेख का अमीष्ट नहीं है। फिर भी, काल शास्त्रीय विवरण सारणी ४ में दिये गये हैं। इनमें वर्गों से सम्बन्धित आधुनिक वैज्ञानिक खोजों के निष्कर्ष भी दिये गये हैं। इससे वर्गों के मन, शरीर एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी प्रभावों का सहज ही मान हो जाता है। ये प्रभाव ही लेश्याध्यान के वीज हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12