Book Title: Leshya Dwara Vyaktitva Rupantaran Author(s): Shanta Jain Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf View full book textPage 7
________________ लेश्या द्वारा व्यक्तित्व रूपान्तरण १६१ आगम साहित्य में सूक्ष्म व्यक्तित्व से स्थूल व्यक्तित्व तक आने के कई पड़ाव है। इनमें सबसे पहला है-चैतन्य (मूल आत्मा), उसके बाद कषाय का तन्त्र, फिर अध्यवसाय का तन्त्र । यहाँ तक स्थूल शरीर का कोई सम्बन्ध नहीं है। ये केवल तेजस शरीर और कर्म शरीर से ही सम्बन्धित हैं। अध्यवसाय के स्पन्दन जब आगे बढ़ते हैं, तब वे चित्त पर उतरते हैं, भावधारा बनती है, जिसे लेश्या कहते हैं। लेश्या के माध्यम से भीतरी कर्म रस का विपाक बाहर आता है, तब पहला साधन बनता है, अन्तःसारी ग्रन्थि तंत्र । इनके जो स्राव है, वे कर्मों के स्राव से प्रभावित होकर आते हैं । भीतरी स्राव से जो रसायन बनकर आता है, उसे लेश्या अध्यवसाय से लेकर हमारे सारे स्थूल तन्त्र तक यानी अन्तःस्रावी ग्रन्थियों और मस्तिष्क तक पहुँचा देती है। ग्रन्थियों के हार्मोन्स रक्त-संचार तन्त्र के माध्यम से नाड़ी तन्त्र के सहयोग से अन्तभाव, चिन्तन, वाणी, आचार और व्यवहार को संचालित और नियन्त्रित करते हैं। इस प्रकार चेतना के तीन स्तर बन गए : १. अध्यवसाय का स्तर : जो अति सूक्ष्म शरीर के साथ काम करता है। २. लेश्या का स्तर : जो विद्युत शरीर-तेजस शरीर के साथ काम करता है। ३. स्थूल चेतना का स्तर : जो स्थूल शरीर के साथ काम करता है ।१२ सूक्ष्म जगत में सम्पूर्ण ज्ञान का साधन अध्यवसाय है। स्थूल जगत में ज्ञान का साधन मन और मस्तिष्क है । मन मनुष्य में होता है, विकसित प्राणियों में होता है, जिनके सुषुम्ना है, मस्तिष्क है; यह प्राण की ऊर्जा से आत्मप्रतिष्ठित होता है । पर अध्यवसाय सब प्राणियों में होता है । वनस्पति जीव में भी होता है। कर्मबन्ध का कारण अध्यवसाय है । असंज्ञी जीव मनशून्य, वचन शून्य और क्रियाशून्य होते है, फिर भी उनके अठारह पापों का बन्ध सतत होता रहता है, क्योंकि उनके भीतर अविरति है, अध्यवसाय है। 3 लेश्या बिना स्नायविक योग के क्रियाशील रहती है। इसलिये लेश्या का बाहरी और भीतरी दोनों स्वरूप समझकर व्यक्तित्व का रूपान्तरण करना होता है । लेख्या के दो भेद हैं-द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या । पहली पुद्गलात्मक होती है और भाव लेश्या आत्मा का परिणाम विशेष है, जो संवलेश और योग से अनुगत है। मन के परिणाम शुद्ध-अशुद्ध दोनों होते हैं और उनके निमित्त भी शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के होते हैं । निमित्त को द्रव्य लेश्या और मन के परिणाम को मावलेश्या कहा है। इसीलिये लेश्या के भी दो कारण बतलाए हैं- निमित्त कारण और उपादान कारण । उपादान कारण है--कषाय की तीब्रता और मन्दता । निमित्त कारण है-पुद्गल परमाणुओं का ग्रहण । दूसरे शब्दों में लेश्या का बाहरी पक्ष है योग, भीतरी पक्ष है कषाय । मन, बचन, काया की प्रवृत्ति द्वारा पुद्गल परमाणुओं का ग्रहण होता है। इनमें वर्ण, गन्ध,रस, स्पर्श सभी होते हैं । वर्ण/रंग का मन पर सीधा प्रभाव पड़ता है। रंगों की विविधता के आधार पर मनुष्य के भाव, विचार और कर्म सम्पादित होते हैं। इसलिये रंग के आधार पर लेश्या के छः प्रकार बतलाए हैं जिनका विवरण सारणी ४ में दिया जा चुका है। रंग का निरूपण रंग की न केवल सैद्धान्तिक दृष्टि से ही व्याख्या की गई है, अपि तु आज विज्ञान की सभी शाखाओं में इसके महत्व पर प्रकाश डाला जा रहा है। भौतिकीविदों, तंत्र-मन्त्र शास्त्रियों, शरीर-शास्त्रियों एवं मनोवैज्ञानिकों ने अपने स्वतंत्र अध्ययनों से बताया है कि रंग चेतना के सभी स्तरों पर जीवन में प्रवेश करता है। रंग को जीवन का पर्याय माना गया है। वैज्ञानिकों ने स्पेक्ट्रम के माध्यम से सात रंगों की व्याख्या की है। उनके अनुसार प्रकाश तरंग के रूप में होता है और प्रकाश का रंग उसके तरंग दैर्ध्य पर आधारित है। तरंगदैर्य और कम्पन की आवृत्ति परस्पर विलीमतः सम्बन्धित है। तरंग दैर्ध्य के बढ़ने के साथ कम्पन की आवृत्ति कम होती है और उसके घटने के साथ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.orgPage Navigation
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