Book Title: Leshya Dwara Vyaktitva Rupantaran
Author(s): Shanta Jain
Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf

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Page 11
________________ ३ ] लेश्या द्वारा व्यक्तित्व रूपान्तरण १६५ शुक्ल लेश्या ध्यान शुक्ल लेश्या का ध्यान ज्योति केन्द्र पर पूणिमा के चन्द्रमा जैसे श्वेत रंग में किया जाता है। श्वेत रंग पवित्रता, शान्ति, सादगी और निर्वाण का द्योतक है। शुक्ल लेश्या उत्तेजना, आवेग, चिन्ता, तनाव, वासना, कषाय, क्रोध आदि को शान्त करती है। लेश्या ध्यान का लक्ष्य है-आत्मसाक्षात्कार। शुक्ल लेश्या द्वारा इस लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है। यहाँ से भौतिक और आध्यात्मिक जगत का अन्तर समझ में आने लग जाता है। आगम के अनुसार शुक्ल ध्यान को फलश्रुति है-अव्यय चेतना, अमूढ़ चेतना, विवेक चेतना और व्युत्सर्ग चेतना ।।४।। शरीरशास्त्रीय दृष्टि से ज्योति केन्द्र का स्थान पिनियल ग्रन्थि है। मनोविज्ञान का मानना है कि हमारे कषाय, कामवासना, असंयम, आसक्ति आदि संज्ञाओं के उत्तेजन और उपशमन का कार्य अवचेतन मस्तिष्क, हायोपेथेलेमस से होता है। उसके साथ इन दोनों केन्द्रों का गहरा सम्बन्ध है। हाइपोथेलेमेस का सोधा सम्बन्ध पिट्यूटरी और पिनियल के साथ है। विज्ञान बताता है कि १२-१३ वर्ष की उम्र के बाद पिनियल ग्लैण्ड का निष्क्रिय होना शुरू हो जाता है जिसके कारण क्रोध, काम, मय आदि संज्ञाएं उच्छृखल बन जाती हैं। अपराधी मनोवृत्ति जागती है। जब ध्यान द्वारा इस ग्रन्थि को सक्रिय किया जाता है तो एक सन्तुलित व्यक्तित्व का निर्माण होता है । __शुक्ल लेश्या का ध्यान शुभ मनोवृत्ति को सर्वोच्च भूमिका है। प्राणी उपशान्त, प्रसन्नचित्त और जितेन्द्रिय बन जाता है । मन, वचन और कर्मरूपता सध जाती है। प्राणी सदैव स्वधर्म और स्व-स्वरूप में लीन रहता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि लेश्या ध्यान से रासायनिक परिवर्तन होते है, पूरा भाव संस्थान बदलता है। उसके वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श सभी कुछ बदलते हैं। व्यक्ति जब तक मूर्छा में जीता है, तब तक उसे बुरे भाव, अप्रिय रंग, असह्य गन्ध, कड़वा रस, तीखा स्पर्श बाधा नहीं डालता, पर जब मूर्छा टूटती है, विवेक जागता है तब वह अशुभ वर्ण, स्पर्श से विरक्त होता है, उन्हें शुभ में बदलता है । यद्यपि लेश्या मान हमारी मंजिल नहीं। हमारा अन्तिम उद्देश्य तो लेश्यातीत बनना है, पर इस तक पहुँचने के लिये हमें अशुम से शुभ लेश्याओं में प्रवेश करना होगा, जिसके लिये लेश्याध्यान आध्यात्मिक विकास के क्षेत्र में महत्वपूर्ण पड़ाव है। ध्यान की एकाग्रता, तन्मयता और ध्येय-ध्याता में अमिन्नता प्राप्त हो जाने पर ही आत्मविकास की दिशाएं खुल सकती है। सन्दर्भ सूची १. गणधर सुधर्मा स्वामी; आचारांग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कन्ध ( सं० मधुकर मुनि ), आगमोदय प्रकाशन सयिति, व्यावर, १९८०, ३,२,११८, पेज १०१ २. देवेन्द्र मुनि शास्त्री; लेश्या : एक विश्लेषण ( बी० एल० नाहटा अभि० ग्रन्य ), नाहटा अभि० समिति, कलकत्ता, १९८६, पेज २/३६ ३. सुधर्मा स्वामी; भगवती सूत्र भाग ४, सा० सं० रक्षक संघ, सैलाना, १९६८, पेज २०५६ ४. - उत्तराध्ययन ( सं० आ० चंदनाश्री ), सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, १९७२, पेज ३६२ ५. अकलंक भट्टः तत्त्वार्थराजवातिक–१, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, १९५३, पेज २३८ ६. आर्य, श्याम; प्रज्ञापना सूत्र-२, आ. प्रकाशन समिति, व्यावर, १९८४, पेज २३९-८८ ७. स्वामी शिवपूजनानंद सरस्वती; रंगों को सूक्ष्मता और हम, योगविद्या, बिहार योग विद्यालय, मुंगेर, २१,११, १९८३, पेज २७ ८. सुधर्मा स्वामी; सूत्रकृतांग प्र० श्रु०, जैन विश्व-भारती, लाडनूं, १९८३, ४|१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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