Book Title: Leshya Dwara Vyaktitva Rupantaran Author(s): Shanta Jain Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf View full book textPage 8
________________ १६२ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड बढ़ती है। सूर्य का प्रकाश प्रिज्म में से गुजरने पर विक्षेपण के कारण सात रंगों में विभक्त दिखाई देता है । उस रंग-पंक्ति को स्पेक्ट्रम कहते हैं। इसके सात रंग हैं-लाल, नारंगी, पीला, हरा, नीला, जामुनी और बैंगनी । इनमें लाल रंग की तरंग दैर्ध्य सबसे अधिक होती है, बैंगनी की सबसे कम । दूसरे शब्दों में लाल रंग की कम्पन आवृत्ति सबसे कम और बैंगनी रंग को सबसे अधिक होती है । दृश्य प्रकाश में जो विभिन्न रंग दिखाई देते हैं, वे विभिन्न कम्पनों की आवृत्ति या तरंग दैर्ध्य के आधार पर होते हैं । रंग और प्रकाश दो नहीं । प्रकाश का ४९ व प्रकम्पन रंग है । इसका महासागर सूर्य से निकलता है, वह शक्ति और ऊर्जा का महास्रोत होता है । रहस्यवादियों की दृष्टि में रंग को एकरूपता, जो हम सृष्टि में चारों ओर देखते हैं, वह देवी मस्तिष्क को प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है । यह प्रकाश तरंगों के रूप में एकमेव जीवन तत्व की ब्रह्माण्डीय प्रस्तुति है । १४ तन्त्र या रहस्यवादियों ने सात रंगों के आधार पर सात किरण मानी है, जिन्हें वे जीवन विकास के आरोहण क्रम में स्वीकार करते हैं। प्रत्येक किरण को विकासवादी युग का प्रतीक माना है । सात किरणें सृष्टि के सात युगों को दर्शाती हैं। आध्यात्मिक ज्ञान, जिसे प्रकाश का प्रभु माना जाता है और जो विकास का मार्गदर्शन करता है, को सात किरणों की आत्मायें भी कहा जाता है । उनकी मान्यता है कि किरणें अनन्त शक्ति और उद्देश्य की पूर्णता है जो मूलस्रोत से निकलती है और जिन्हें सर्वशक्तिमान प्रज्ञा द्वारा निर्देशन मिलता है । सात ब्रह्माण्डीय किरणों में प्रथम तीन किरणों लाल, नारंगी और पोली से संबधित प्रथम तीन युग बीत गए है। अब हम चौथे युग यानी हरे रंग में जी रहे हैं, जो बीच का रंग है । या यूं कहें कि एक ओर संघर्ष, कटु अनुभव का निम्नयुग और दूसरी और आत्मिक विकास तथा गुणों का श्रेष्ठ युग; इसके बीचोंबीच हरा रंग है। इससे आगे भावी दृष्टिकोण नीली किरणों के उच्च प्रकम्पनों की ओर आगे बढ़ा है और यह विकास अधिकाधिक श्रेष्ठ स्थिति में नील और बैंगनी तरंगों तक विकसित होता जाएगा, जब तक हम सप्तमुखी किरण विभाजन के अन्त तक नहीं पहुँच जाएंगे । १५ रंगों के आधार पर मनुष्य की जाति, गुण, स्वभाव, रूचि, आदर्श आदि की व्याख्या करने की भी एक परम्परा चली । महाभारत में चारों वर्णों के रंग भिन्न-भिन्न बतलाये हैं । ब्राह्मणों का श्वेत, क्षत्रियों का लाल, वैश्यों का पीला और शुद्रों का काला ।१६ जैन साहित्य में चौबीस तीर्थंकरों के भिन्न-भिन्न रंग बतलाये गये हैं । पद्मप्रभु और वासुपूज्य का रंग लाल, चन्द्रप्रभु और पुष्पदन्त का श्वेत मुनिसुव्रत और अरिष्टनेमि का रंग कृष्ण, मल्लि और पार्श्वनाथ का रंग नीला और शेष सोलह तीर्थंकरों का रंग सुनहरा पीला माना गया है। ज्योतिष विद्या के अनुसार ग्रह मानव के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं । उनको विपरीत दशा में सांसारिक और आध्यात्मिक अभ्युदय में विविध अवरोध उत्पन्न होते हैं । इन अवरोधों को निष्क्रय बनाने के लिये ज्योतिष शास्त्री अमुक ग्रह को प्रभावित करने वाले अमुक रंग के ध्यान का प्रावधान बताते हैं, विभिन्न रंगों के रत्न व नगों के प्रयोग के लिये कहते हैं । शरीरशास्त्री मानते हैं कि रंग हमारे जीवन की आन्तरिक व्याख्या है । अनेक प्रयोगों द्वारा यह ज्ञात किया जा चुका है कि रंगों का व्यक्ति के रक्तचाप, नाड़ी और श्वसन गति एवं मस्तिष्क के क्रियाकलापों पर तथा अन्य जैविकी क्रियाओं पर विभिन्न प्रभाव पड़ता है । प्रो० एलेक्जेन्डर रॉस का मानना है कि रंग की विद्युत चुम्बकीय ऊर्जा किसी अज्ञात रूप में हमारो पिट्यूटरी और पोनियल ग्रंथियों तथा मस्तिष्क की गहराई में विद्यमान हायपोथेलेमस को प्रभावित करती है । वैज्ञानिकों के अनुसार हमारे शरीर के ये अवयव अन्तःस्रावी ग्रंथि तन्त्र का नियमन करते हैं जो स्वयं शरोर के अनेक मूलभूत प्रतिक्रियाओं का नियन्त्रण करते हैं। रंग हमारे शरीर, मन, विचार आर आचरण से जुड़ा है । के सूर्य किरण या रंग चिकित्सा के अनुसार शरीर रंगों का पिण्ड है। हमारे शरीर है । सूक्ष्म कोशिकाएँ भी रंगीन है। वाणी, विचार, भावना समो कुछ रंगीन है । प्रत्येक अवयव का इसीलिये जब कभी अलग-अलग रंग शरार में रंगों के प्रकम्पनों का सन्तुलन बिगड़ जाता है, तो व्यक्ति अस्वस्थ हो जाता है । रंग चिकित्सा पुनः रंगों का सामंजस्य स्थापित करके स्वस्थता प्रदान करती है । १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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