Book Title: Lekh Sangraha Part 01
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Rander Road Jain Sangh

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Page 13
________________ शान्तो वैरविवर्जितः सनिररिनिद्वेषिणो नो भयं, तस्माल्लेखयत श्रुतं भुवि जनाः! यूयं विधायादरम्॥१९॥ - जैसलमेर ताड़पत्रीय प्रति 119 की लेखन - प्रशस्ति यही कारण था कि जिनभद्रसूरि ने अपने उपदेशों के माध्यम से श्रद्धालु उपासकों के मानस को श्रुतभक्ति की ओर मोड़ दिया। उपासक भी सादर भक्ति एवं उल्लास के साथ शास्त्र-लेखन में जुड़ गये। फलतः आचार्यश्री को आशातीत सफलता प्राप्त हुई और उन्होंने राजस्थान में 3 - जैसलमेर, जालौर, नागौर; गुजरात में 3 - पाटण, खंभात, आशापल्ली; मालवा में 1 - मांडवगढ़ तथा देवगिरि कुल 8 स्थानों पर समृद्ध ज्ञान भंडार स्थापित किये। इनमें से जालौर, नागौर, खंभात, आशापल्ली, मांडवगढ़ और देवगिरि के भंडारों का तो अता-पता ही नहीं है। वैसे तो पाटण के भंडार का भी पता नहीं है, किन्तु जिनभद्रीय ज्ञान भंडार के कुछ ग्रन्थ आज भी बाड़ी पार्श्वनाथ ज्ञान भंडार, पाटण में विद्यमान हैं जो आज भी आचार्य जिनभद्र के नाम को सुरक्षित रखे हुए हैं। उक्त आठ भंडारों में से मुख्यतः केवल एकमात्र 'जैसाणो' जैसलमेर में स्थापित जिनभद्रसूरि ज्ञान भंडार ही आज विद्यमान है। यह भंडार विश्व विश्रुत ज्ञान भंडार है। प्राचीनता एवं ताड़पत्रीय ग्रन्थों की प्रचुरता से समृद्ध है और अन्यत्र अप्राप्त अनेक दुर्लभ ग्रन्थों/पाण्डुलिपियों से समलंकृत है। भारतीय और पाश्चात्य शोधकों ने यहाँ आ-आकर, शोधकर, पाण्डुलिपियाँ करवाकर, प्रकाशन कर, इस समृद्ध भंडार के वैशिष्ट्य/गौरव को मुक्तकण्ठ से स्वीकार किया है। मरु क्षेत्र के इस उपेक्षित आंचल जैसलमेर को सदियों पश्चात् समृद्धि की ओर बढ़ने का जो संयोग मिला है, पर्यटक केन्द्र बनने का जो सौभाग्य मिला है, उसमें भी मुख्य कारण हैं - जैन ज्ञान भंडार, जिनभद्रसूरि आदि आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठापित किले के भीतर वास्तुकला परिपूर्ण जैन मन्दिर और पटवों की हवेलियों का आकर्षण। ज्ञान भंडार की स्थापना एवं भंडार स्थित विशिष्ट सामग्री पर कुछ भी लिखने के पूर्व इसके संस्थापक आचार्य जिनभद्रसूरि का परिचय प्राप्त कर लेना आवश्यक है। .. जिनभद्रसूरि जिनभद्रसूरि पट्टाभिषेक रास के अनुसार मेदपाटदेशस्थ देउलपुर नगर था। वहाँ का अधिपति लखपति (लाखा) था। वहाँ छाजड़ गोत्रीय श्रेष्ठि धीणिग निवास करते थे। उनकी पत्नी का नाम खेतलदेवी था। खेतलदेवी की कुक्षि से ही इनका जन्म वि. सं. 1449, चैत्र शुक्ला षष्ठी के दिन हुआ था। जन्म नाम रामण कुमार था। तत्कालीन खरतरगच्छ नायक जिनराजसूरि के वरदहस्त से रामण कुमार ने दीक्षा ग्रहण की। इनका दीक्षा नाम कीर्तिसागर रखा गया था तथा वाचनाचार्य शीलचन्द्रगणि के समीप विद्याध्ययन किया था। श्री जिनराजसूरि का 1461 में देवकुलपाटक में स्वर्गवास हो जाने पर श्री सागरचन्द्राचार्य ने इनके पट्ट पर उसी वर्ष जिनवर्धनसूरिजी को स्थापित किया था, किन्तु दैवी प्रकोप के कारण तथा गच्छोन्नति को ध्यान में रख कर सं. 1475 में सागरचन्द्रचार्य ने मुनि कीर्तिसागर को आचार्य पद प्रदान कर गच्छनायक घोषित किया। पदाभिषेकोत्सव नाल्हिग शाह ने बड़े समारोह से किया था। इनका विहार क्षेत्र प्रमुखतः गुजरात, मारवाड़ और मालवा रहा। लेख संग्रह

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