Book Title: Laghu Shanti Vidhan Author(s): Rajmal Pavaiya Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Foundation View full book textPage 7
________________ = लघु शान्ति विधान ॥ = विजयमेरु के नन्दनवन से, अक्षत लाऊँधवलोज्ज्वल। अक्षयपद की प्राप्ति हेतु मैं, ध्याऊँ निजस्वभाव निर्मल। पाँचोंपरमेष्ठी जिनमन्दिर, जिनप्रतिमा जिनश्रुत जिनधर्म। नवदेवों को वन्दन करके, हे प्रभु! हो जाऊँ निष्कर्म। ॐ ह्रीं श्री नवदेवेभ्यः अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। अचलमेरु-सौमनससुवन से, विविध पुष्पलाऊँमनहर। कामबाण विध्वंस हेतु, धारूँ उर महाशील शिवकर ।।पाँचो.।। ॐ ह्रीं श्री नवदेवेभ्यः कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। मन्दरमेरु-पाण्डुकवन जा, अनुभव रस चरु निर्मित कर। क्षुधारोग की पीर मिटाऊँ, अनाहार निजपद पाकर । पाँचो.॥ ॐ ह्रीं श्री नवदेवेभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं निर्वपामीति स्वाहा। विद्युन्मालीमेरु निकट जा, दीपक लाऊँ ज्ञानमयी। महामोह मिथ्यात्व तिमिर हर, हो जाऊँ निजध्यानमयी।।पाँचो.।। ॐ ह्रीं श्री नवदेवेभ्यः मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। मानुषोत्तर पर्वत पर जा, ध्यान धरूँगा धर्ममयी। निज शुद्धोपयोग के बल से, हो जाऊँ वसु कर्मजयी।।पाँचो.।। ॐ ह्रीं श्री नवदेवेभ्यः अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। पंचमेरु के कुलवृक्षों से, रस वाले फल लाऊँ आज। शाश्वत महामोक्षफलपाऊँ, गुण अनन्त प्रगटा जिनराज।।पाँचो.।। ॐ ह्रीं श्री नवदेवेभ्यः महामोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। पंचमेरु के वक्षारों पर, अर्घ्य बनाऊँ भली प्रकार। पद अनर्घ्य ध्रुवधामी पाऊँ, हो जाऊँ भवसागर पार ।।पाँचो.।। ॐ ह्रीं श्री नवदेवेभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। महार्घ्य (हरिगीत) संचिता भव-वासना का, अन्त करना चाहिए। अब कषायी भाव को, सम्पूर्ण हरना चाहिए। जानकर सामान्य छह गुण, ध्यान अपना कीजिए। । जो कि चार अभाव है, उनको हृदय में लीजिए। हारमा) oPage Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26