Book Title: Laghu Shanti Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Foundation

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Page 13
________________ विजयी मरत के, दस 'मिल =॥ लघु शान्ति विधान ॥= पंचमेरु के देवकुरू-उत्तरकुरू भोगभूमिसम्बन्धीदशकुलवृक्ष-जिनालयोंकोअर्घ्य पंचमेरु के दो-दो जम्बू-शाल्मलि-धातकी-पुष्कर वृक्ष। चैत्यवृक्ष जिनगृह मैं वन्,, होऊँ आत्मज्ञान में दक्ष ।। पृथ्वीकायिक वृक्ष सभी हैं, यही जान कर हर्षाऊँ। परम शान्ति हित अर्घ्य चढ़ाऊँ, विनयभाव उर में लाऊँ। ॐ ह्रीं श्री पञ्चमेरुसम्बन्धिदशकुलवृक्षजिनालयेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा। पंचमेरुसम्बन्धीएकसौसत्तरविजया (वैतादय)जिनालयोंकोअर्घ्य एक मेरु चौंतीस गिरि, विजया क्षेत्र बत्तीस विदेह । भरतैरावत एक-एक हैं, भावसहित निरखू धर नेह ।। विदेहक्षेत्र सम्बन्धी इक शत, साठ श्रृंग विजयार्ध महान। पंचैरावत पंचभरत के, दस विजया सुपर्वत जान ।। सब मिल एक शतक सत्तर, विजया रजतगिरि ढाईद्वीप। इन पर एक-एक चैत्यालय, जो भव्यों के हृदय समीप॥ सब मिल एक शतक सत्तर, चैत्यालय स्वर्णमयी वन्दूँ। परम शान्ति पाऊँ हे स्वामी, निजस्वभाव को अभिनन्दूँ। ॐ ह्रीं श्री पंचमेरुसम्बन्धि-विजयार्धक्षेत्रस्थसप्तत्यधिक-एकशतक जिनालयेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा। . घातकीरखण्डएवंपुष्करार्ध-सम्बन्धी चार इष्वाकार जिनालयों को अर्घ्य द्वीप धातकी दक्षिण-उत्तर, दो हैं इष्वाकार महान । पुष्पकरार्ध में दक्षिण-उत्तर, दो हैं इष्वाकार प्रधान ।। एक उदधि से द्वितीय उदधि तक, होता है इनका विस्तार। जिन आगम करणानुयोग का, ज्ञान करूँ जो अगम अपार॥ ये सब चार जिनालय, इष्वाकार परम सुन्दर पावन। . विनय भाव से शान्ति प्राप्ति हित, वन्दूँसादर मन-भावन।। ॐ ह्रीं श्री धातकीखण्ड-पुष्कराधसम्बन्धी इष्वाकार चतुर्जिनालयेभ्योऽयं । निर्वपामीति स्वाहा। = (१२) = - पता

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