Book Title: Laghu Shanti Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Foundation

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Page 15
________________ पर = लघु शान्ति विधान॥= अष्टाह्निका पर्व में इन्द्रादिक, सुर आ करते पूजन । ' नहीं शक्ति जाने की हममें, अतः यहीं से है वन्दन ।। नाचें गाएँ अर्घ्य चढ़ाएँ, करें भाव से नित्य नमन । परम शान्ति की धारा पाएँ, पाकर प्रभु सम्यग्दर्शन ।। ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपस्थ द्विपंचाशज्जिनालयेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा। एकादशमकुण्डलवरद्वीपके चारजिनालयों को अर्घ्य एकादशम द्वीप कुण्डलवर, चारों दिशि के जिनगृह चार। विनय भक्ति से वन्दन करके, नाशें सारा राग विकार। परम शान्ति का समुद्र पाएँ, गुण अनन्त पाएँ हे देव । निज पुरुषार्थ शक्ति से हम भी, निजपद पाएँ स्वयमेव।। ॐ ह्रीं श्री एकादशम कुण्डलवरद्वीपस्थ चतुर्जिनालयेभ्योऽयं निर्वामीति स्वाहा। त्रयोदशम रुचकवरद्वीपके चारजिनालयों को अर्घ्य त्रयोदशम है द्वीप रुचकवर, चारों दिशि में जिनगृह चार। इन्द्रादिक सुर पूजन करते, गाते जिनप्रभु की जयकार ।। द्वीप रुचकवर से आगे, जिन चैत्यालय का पूर्ण अभाव। मध्यलोक में इसी द्वीप तक, जिनगृह हैं यह वस्तुस्वभाव। तेरह द्वीपों के जिनमन्दिर, हमने पूजे भक्तिसहित । शाश्वत शान्ति सौख्य पाएँ, हम हो जाएँ परभावरहित ।। ॐ ह्रीं श्री त्रयोदशमरुचकवरद्वीपस्थ चतुर्जिनालयेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा। मध्यलोक के सर्वचारसौ अट्ठावन जिनालयों को अर्घ्य (ताटंक) मध्यलोक में चार शतक, अट्ठावन जिनगृह सब पावन । सर्व अकृत्रिम सादर वन्दूँ, परम शान्ति पाऊँ भगवन् । पूर्ण अर्घ्य मैं करूँ समर्पित, अकृत्रिम प्रतिमा वन्दूँ। निजस्वरूप में ही रम जाऊँ, निजस्वभाव ही अभिनन्दूँ।। ॐ ह्रीं श्री मध्यलोकस्थितअष्टपंचाशदधिकचतुशतकजिनालयेभ्योऽर्थ्य निर्वपामीतिस्वाहा। = (१४) =

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