Book Title: Labdhisar Author(s): Nemichandra Shastri Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal View full book textPage 4
________________ प्रकाशकीय इस ग्रन्थ की प्रथमावृत्ति विक्रम सं० १९७३में पाढम निवासी पं० मनोहरलालशास्त्रीकृत संस्कृत छाया तथा संक्षिप्त हिंदी भाषाटीकासहित प्रकाशित की गई थी, पर वह बहुत संक्षिप्त होने के कारण उस भाषानुवादमें सभी विषयोंका स्पष्टीकरण नहीं हुआ था। अबकी बार इस ग्रन्थका सम्पादन एकदम स्वतंत्ररूपसे ही किया गया है । मूल प्राकृत गाथाएँ तथा संस्कृत छायाके सिवाय श्री टोडरमल्लजीकृत सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका मूल ढूंढारी भाषा में ही रख दो गई है । इसके अतिरिक्त ग्रंथके प्रारम्भमें श्री टोडरमल्लजी द्वारा लिखी गई प्रस्ताव ढारी भाषामें ही दे दी है और ग्रंयके अंतमें अर्थसंदृष्टि अधिकार भी जोड़ दिया है । इस लब्धिसारकी सम्यग्ज्ञानचंद्रिका टोका संस्कृतवृत्ति सहित सर्वप्रथम भारतीय जैनसिद्धान्तप्रकाशिनी संस्था, कलकत्तासे लगभग साठ वर्ष पूर्व प्रकाशित हुई थी जो इस समय अनुपलब्धप्राय है। उसोको माध्यम बनाकर यह द्वितीयावृत्ति तैयार कराई गई है। विशेष में पंडित श्री फूलचन्द्रजी शास्त्रीने प्रस्तावनाके साथ आवश्यक स्थलोंपर विशेषार्थ देकर मूल विषयको स्पष्ट करने का सुंदर प्रयत्न किया है तथा अमुक जगहोंपर टिप्पणियाँ भी दी है। इसके फलस्वरूप प्रथमावृत्तिकी अपेक्षा इस ग्रन्थका कद तो लगभग तिगुना हो गया है किन्तु साथ ही ग्रन्थकी उपयोगिता भी बहुत बढ़ गई है जिसका विशेष अनुभव तो विद्वज्जन स्वयं ही करेंगे । यह मूल ग्रन्थ श्री चामुण्डराय राजाके प्रश्नके निमित्तसे श्रीमन्नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तीने बनाया है जोकि कषायप्राभत नामा जयधवलसिद्धान्तके पंद्रह अधिकारोंमेसे पश्चिमस्कंध नामके पंद्रहवें अधिकारके अभिप्रायसे गभित है। इसकी सम्यग्ज्ञानचंद्रिका नामक भाषाटीका जयपुर निवासी श्रीमान् विद्वच्छिरोमणि टोडरमल्लजीने ढूंढारी भाषामें विक्रम संवत् १८१८में बनाई है। उसमें उन्होंने लिखा है कि उपशमचारित्रके अधिकार तक तो केशववर्णीकृत संस्कृतटीकाके अनुसार व्याख्यान किया गया है, किन्तु कर्मों के क्षपणा अधिकारके गाथाओंका व्याख्यान श्री माधवचंद्राचार्यकृत संस्कृत गद्यरूप क्षपणासार के अभिप्राय अनुसार शामिल कर दिया गया है । इसीसे इस ग्रन्थका नाम "लब्धिसार (क्षपणासार गर्भित)" रखा गया है । श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डलकी ओरसे श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालाके अन्तर्गत इसको यह प्रस्तुत नवीन संशोधित आवृत्ति प्रकट करते हुए हमें अत्यन्त हर्ष होता है । विद्वान् पाठक एवं जिज्ञासु इसके पठनमननसे अधिकाधिक लाभ उठाये इसीमें हमारे प्रकाशनका श्रम सफल है। शुभम् भयात् । -प्रकाशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 ... 744