Book Title: Kundkundacharya Charitra
Author(s): Mulchand Kishandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 42
________________ दिगंबर जैन. छेटेथी नमस्कार कर्या अने ते मुनिनो धर्मोपदेश सांभळी तेना मनमा जुदी जुदी कल्पना तरंग उठवा लाग्या के खरेखर मुनि ! आ संसार असार छे, माबाप भाइ सर्व मायानुं बजार छे, आ जीवने मनुष्य, तिर्थंच, नरक अने देवगतिमा एकलं भ्रमण करवुं पडे छे. जेम सुखनो भोक्ता एकज छे तेम असा दु.खोनो भोक्ता आ जीव छे. नरजन्म दुर्लभ छे अने तेमां सद्धर्मप्राप्ति दुर्लभ छे, तेथी काक्तालियन्यायवत् मळेलो जन्म चाल्यो न जाय ते माटे इश्वरचिंत्वनमा तल्लीन थवा जेवुं खरं कल्याणजीवन बीजुं कोइ नथी. आ सुनिनुं कहेतुं तेने तद्दन यथार्थ लाग्युं. आपणे जो स्वतः आ विचार प्रमाणे चालीए तो मानापने दुख थशे पण विचारने अंते ए आव्युं के - मात्राप कोना ? जीवमां जीव छे त्यां सुधी मारुं सौ बोले छे पण एकदा जीव नोकळी गयो एटले सर्व संबंध अने सगपण तूटया. जे मृदु शरीरने उत्तम स्वादिष्ट पदार्थोथी पोषण करीए, उत्तम वस्त्रोथी सुशोभित करीए, ते शरीरनो आखर चीता उपर नाश थवानो ! अर्थात् आ संसार मात्र मायावी - क्रोध, मान, माया, लोभनु बजार छे. क्रोध, मानने जीत्या सिवाय खरी आत्मोन्नति नथी. हवे जे थाय ते भले. थाय, पण हुं आवा सज्जन अने हितकर मुनिनी सोबत ३६ "

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