Book Title: Karni Ka Fal
Author(s): Jain Education Board
Publisher: Jain Education Board

View full book text
Previous | Next

Page 30
________________ 事 भ्रात ! यह क्या किया तुमने? क्रोध में आकर अपनी तपस्या का धुआँ मत उड़ाओ। क्षमा और शान्ति ही अणगार का धर्म है। क्षमा करो ! शान्त हो जाओ ! क्रोध करके तप को नष्ट मत करो। 新 चित्त मुनि के समझाने पर संभूत मुनि को अपने किये पर पश्चात्ताप हुआ-भ्रात ! मैं अपने आपको भूल गया। क्रोध में बहक कर अपने तप को नष्ट कर दिया। संभूत मुनि ने अपनी तेजोलेश्या वापस खींचली। कुछ ही देर में धुएँ के गुब्बार शान्त हो गये। करनी का फल सैनिकों ने बताया- "मंत्री नमुचि के आदेश से हमने मुनि को पीटा है।" चक्रवर्ती ने क्रोधित होकर आदेश दिया-इस दुष्ट को रस्सों से बाँधकर चोर की 事 तरह नगर में घुमाकर मेरे सामने लाओ ! फिर उसने दुष्ट नमुचि को मुनि के सामने लाकर खड़ा किया • पूज्य तपस्वी जी, आपका अपराधी सामने खड़ा है, आज्ञा दीजिये इसे क्या दण्ड 5 दूँ? 新 इधर सनत्कुमार चक्रवर्ती को सूचना मिली-"सैनिकों ने एक श्रमण को बहुत मारा है, वे ही मुनि क्रुद्ध होकर नगर को तेजोलेश्या से भस्म कर रहे हैं। चक्रवर्ती ने पता लगाया-किस दुष्ट ने यह नीच कर्म किया? नमुचि गिड़गिड़ाकर संभूत मुनि के चरणों में झुक गया-“क्षमावीर ! मुझ अपराधी को क्षमा दो ! मेरी नीचता माफ करो।" 新 事事事 新 संभूत मुनि बोले - "राजन् ! अपराधी पर क्षमा करना ही मुनि का धर्म है। इसे मुक्त कर दो।" चक्रवर्ती मुनि की क्षमाशीलता पर बहुत प्रसन्न हुआ। वह भक्ति पूर्वक मुनि की वन्दना करने लगा। 事 सनत्कुमार चक्रवर्ती का विशाल राज परिवार, सुन्दर रमणियाँ आदि अपार वैभव देखकर संभूत मुनि का मन चंचल हो उठा। उन्होंने मन ही मन संकल्प कर लिया"यदि मेरी तपस्या का कोई फल हो तो मैं भी अगले जन्म में ऐसे ही विशाल वैभव का स्वामी बनूँ ।" 事 चित्त संभूत दोनों मुनि वहाँ से आयु पूर्ण कर नलिनीगुल्म विमान में देवता बनते हैं। दिव्य देव सुखों का उपभोग करके वहाँ से आयुष्य पूर्ण कर संभूत का जीव कम्पिलपुर के ब्रह्म राजा का पुत्र ब्रह्मदत्त बनता है। मैं (चित्त) पुरिमताल नगर में एक श्रेष्ठी पुत्र बनता हूँ। पूर्वजन्म के तप-ध्यान-साधना के शुभ संस्कारों के कारण मेरा मन सांसारिक विषय-भोगों से विरक्त हो गया। युवावस्था में ही मैं मुनि बन गया। गाँव-गाँव विचरता हुआ इस बगीचे में आया हूँ। माली के मुख से जब ये गाथाएँ सुनी तो मुझे जातिस्मरण ज्ञान हो गया। मैंने अपने पाँचों जन्म देख लिए। तब मैंने माली को यह चौथा पद सुनाया "इमाणो छट्टिया जाइ अण्णमण्णेहि जा विणा ।” पाँच जन्मों तक हम साथ रहे, किन्तु छठे जन्म में दोनों अलग-अलग हो गये। 新 26 蛋蛋蛋

Loading...

Page Navigation
1 ... 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38