Book Title: Karm ka Bhed Prabhed
Author(s): Rameshmuni
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 2
________________ कर्म के भेद-प्रभेद ] [ ३५ इन आठ कर्म प्रवृत्तियों के संक्षिप्त रूप से दो अवान्तर भेद हैं- चार घाती कर्म' और चार अघाती र कर्म । .२ घातीकर्म १ - ज्ञानावरणीय २- दर्शनावरणीय ३ - मोहनीय ४- अन्तराय जो कर्म आत्मा के स्वाभाविक गुणों को आच्छादित करते हैं, उन्हें विकसित नहीं होने देते हैं, वे कर्म घाती कर्म हैं । इन घाती कर्मों की अनुभाग-शक्ति का असर श्रात्मा के ज्ञान, दर्शन आदि गुणों पर होता है । जिससे आत्मिक गुणों का विकास अवरुद्ध हो जाता है । घाती कर्म आत्मा के मुख्य गुण अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य गुणों का घात करता है । जिससे आत्मा अपना विकास नहीं कर पाती है । जो अघाती कर्म आत्मा के निज-गुणों का प्रतिघात तो नहीं करता है, किन्तु आत्मा के जो प्रतिजीवी गुण हैं उनका घात करता है अतः वह अघाती कर्म है । इन प्रघाती - कर्मों की अनुभाग शक्ति का असर जीव के गुणों पर तो नहीं होता, किन्तु प्रघाती कर्मों के उदय से आत्मा का पौद्गलिक द्रव्यों से सम्बन्ध जुड़ जाता है। जिससे आत्मा 'अमूर्तोऽपि मूर्त इव' प्रतीत होती है । यही कारण है कि श्रघाती - कर्म के कारण आत्मा शरीर के कारागृह में आबद्ध रहती है जिससे आत्मा के श्रव्याबाध सुख, अटल अवगाहना, अमूर्तिकत्व और अगुरुलघु गुण प्रकट नहीं होते हैं । १. १. ज्ञानावरणीय कर्म : जीव का लक्षण उपयोग है । 3 उपयोग शब्द ज्ञान और दर्शन इन दोनों का संग्राहक है । ज्ञान साकारोपयोग है और दर्शन निराकारोपयोग है । ( क ) गोम्मटसार कर्मकाण्ड & || ख) पंचाध्यायी २ / ६६८ ॥ अघातीकर्म १ - वेदनीय २- आयु ३-नाम ४ - गोत्र २. ( क ) पंचाध्यायी २ / ६६६ ॥ ( ख ) गोम्मटसार - कर्मकाण्ड - ॥ ३. (क) उवओोगलक्खणेणं जीवे - भगवती सूत्र १३/४/४/८० ।। (ख) उवप्रोगलक्खणे जीवे -भगवती सूत्र २/१० ।। (ग) गुणमो उवओोगगुणे - स्थानांग सूत्र ५ / ३ / ५३० ।। - उत्तराध्ययन सूत्र २८ / १० || (घ) जीवो उवप्रोगलक्खणो (ङ) द्रव्यसंग्रह गाथा - १ (च) तत्त्वार्थ सूत्र - २ / ८ ॥ ४. जीवो उवयोगमंत्री, उवप्रोगो ५. तत्त्वार्थ सूत्र भाष्य २ / ६ ॥ Jain Educationa International णाणदंसणो होई ॥ नियमसार - १० ।। For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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