Book Title: Kailas Shrutasagar Granthsuchi Vol 25
Author(s): Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 18
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हस्तलिखित जैन साहित्य १.१.२५ १०६४७२. (+) उत्तमकुमारचरित्र रास, पूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. ३०, पू.वि. अंतिम पत्र नहीं है., प्र.वि. हुंडी:उत्तमकुमाररासपत्र., संशोधित., जैदे., (२७४१४, १२-१४४३०). उत्तमकुमारचरित्र रास, मु. जिनहर्ष, मा.गु., पद्य, वि. १७४५, आदि: चरमजिणेसर चित्त धरूं; अंति: (-), (पू.वि. ढाल-२९ की मात्र अंतिम गाथा नहीं है.) १०६४७३. (+#) रामविनोद, अपूर्ण, वि. २०वी, श्रेष्ठ, पृ. २७-१(१)=२६, पू.वि. प्रथम एक व अंत के पत्र नहीं हैं., प्र.वि. संशोधित. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, दे., (२६.५४१३.५, १६४३५-४४). रामविनोद, पं. रामचंद्र गणि, मा.गु., पद्य, वि. १७२०, आदि: (-); अंति: (-), (पू.वि. समुद्देश-१ शुभशकुनलाभ विचार ___ अपूर्ण से समुद्देश-३ पित्त अतिसार अपूर्ण तक है.) १०६४७६. (+) प्रतिक्रमणसूत्र सह बालावबोध, अपूर्ण, वि. १८८९, पौष शुक्ल, ११, बुधवार, मध्यम, पृ. ८२-१(१)=८१, प्र.वि. हुंडी:पडिक०बा०, पडि०बा०., संशोधित-पदच्छेद सूचक लकीरें., जैदे., (२७.५४१३, ११४३६-४०). पंचप्रतिक्रमणसूत्र-खरतरगच्छीय, संबद्ध, प्रा.,मा.गु.,सं., प+ग., आदि: (-); अंति: संघस समुन्नइनिमित्तं, (पू.वि. नमस्कार मंत्र अपूर्ण से है.) पंचप्रतिक्रमणसूत्र-खरतरगच्छीय का बालावबोध, मु. सहजकीर्ति कवि, मा.गु., गद्य, वि. १७०४, आदिः (-); अंति: (१)बेउं आर्यानो अर्थ जाणिवओ, (२)मणनतो ग्रंथमानं समस्तकम्, (पू.वि. नमस्कार मंत्र का बालावबोध अपूर्ण से १०६४७७. देवसिप्रतिक्रमणसूत्र, अपूर्ण, वि. २०वी, मध्यम, पृ. ६-१(४)=५, पू.वि. बीच व अंत के पत्र नहीं हैं., दे., (२६४१४, १४४२८). देवसिप्रतिक्रमणसूत्र-तपागच्छीय, संबद्ध, प्रा.,मा.गु.,सं., प+ग., आदि: नमो अरिहंताणं० इच्छा; अंति: (-), (पू.वि. १८ पापस्थानक आलोयणा तक है व बीच के पाठांश नहीं हैं.) १०६४७९ (+) पर्युषणाष्टाह्निका व्याख्यान का बालावबोध, अपूर्ण, वि. २०वी, मध्यम, पृ. ३०-२(८ से ९)=२८, पू.वि. बीच व अंत के पत्र नहीं हैं., प्र.वि. टिप्पण युक्त विशेष पाठ., दे., (२७७१३, १२४४७). पर्यषणाष्टाह्निका व्याख्यान-बालावबोध, मा.गु., गद्य, आदि: स्मृत्वा पार्श्वसहस; अंति: (-), (पू.वि. बीच व अंत के पाठ नहीं हैं.) १०६४८२ (+#) महीपालनरेंद्र चतुष्पदिका, संपूर्ण, वि. १९२९, आश्विन कृष्ण, १४, मंगलवार, मध्यम, पृ. ९९, ले.स्थल. वीदासर, प्रले. मु. सिखरचंद्र, प्र.ले.पु. सामान्य, प्र.वि. हुंडी:महीप., संशोधित-पदच्छेद सूचक लकीरें. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, दे., (२८x१३.५, १७-१८४५५-५८). महीपालराजा चौपाई, मु. विनयचंद, मा.गु., पद्य, आदि: श्रीनाभेय युगादिजिन; अंति: श्रीसंघरंग वधामणी, खंड-४, ग्रं. ५५०४, (वि. ढाल १२३.) १०६४८५ (#) अतिचार, अपूर्ण, वि. १९वी, जीर्ण, पृ. १२-१(९)=११, ले.स्थल. उदयपुर, प्रले. ग. रंगकुशल पंडित, प्र.ले.पु. सामान्य, प्र.वि. अंत में पठनार्थे हेतु "सुश्रावक मनजीरी वहु" ऐसा लिखा है., मूल पाठ का अंश खंडित है, अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२५४१३, १२४२१-२३). श्रावकपाक्षिकअतिचार-तपागच्छीय, संबद्ध, प्रा.,मा.गु., गद्य, आदि: नाणंमि दंसणंमि०; अंति: करी मिच्छामि दुक्कडं, संपूर्ण. १०६४८७. (+) प्रतिक्रमणसूत्र संग्रह-तपागच्छीय व स्तुत्यादि संग्रह, अपूर्ण, वि. १९वी, श्रेष्ठ, पृ. १७-१०(१ से १०)-७, कुल पे. ९, प्र.वि. संशोधित., जैदे., (२८४१३, १२४३६). १.पे. नाम. प्रतिक्रमणसूत्र संग्रह-तपागच्छीय, पृ. ११अ-१४आ, अपूर्ण, पृ.वि. प्रारंभ के पत्र नहीं हैं. पंचप्रतिक्रमणसूत्र संग्रह-तपागच्छीय, संबद्ध, प्रा.,मा.गु.,सं., प+ग., आदि: (-); अंति: वारे तीन मांडला कीजै, (पू.वि. पोरसि पच्चक्खाण ग्रहण विधि अपूर्ण से है.) २. पे. नाम. संस्तारक विधि, पृ. १४आ-१५अ, संपूर्ण. संथारापोरसीसूत्र, प्रा., पद्य, आदि: निसीहि निसीहि निसीहि; अंति: चउगई हरणा सरणं लहइ धन्नो, गाथा-१६. For Private and Personal Use Only

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