Book Title: Jinendra Archana Author(s): Akhil Bansal Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 2
________________ : १ लाख ७७ हजार प्रथम बत्तीस संस्करण (६ अक्टूबर से अद्यतन) तेतीसवाँ संस्करण (१ जनवरी, २००७) ५ हजार : १ लाख ८२ हजार मूल्य : तीस रुपए प्रस्तुत संस्करण की कीमत कम करने वाले दातारों की सूची १. श्री दि. जैन नेमिनाथ पंचकल्याणक __ समिति, किशनगढ़ २,१००१ २. श्री कुन्दकुन्द दि. जैन मुमुक्षु मण्डल ट्रस्ट, टीकमगढ़ २,१०१ ३. श्री दि. जैन समाज, पीसांगन २,१०१ ४. श्री दि. जैन समाज नर्सिंगपुरा मन्दिर मन्दसौर ५. श्री शिकोहाबाद पंचकल्याणक समिति शिकोहाबाद १,१०१ ६. श्री मनोहरलाल काला अमृत __महोत्सव समिति, इन्दौर १,१०१ ७. श्री कुन्दकुन्द कहान दि. जैन मुमुक्षु ट्रस्ट, दादर मुम्बई ८. श्री दि. जैन कुन्दकुन्द परमागम ट्रस्ट साधनानगर, इन्दौर १,००१ ९. श्रीमती कुसुम जैन ध.प. विमलकुमारजी जैन, 'नीरू केमिकल्स, दिल्ली १,००१ १०. श्रीशान्तिनाथजी सोनाज परिवार अकलूज ५०१ ११. श्रीमती श्रीकान्ताबाई ध.प. पूनमचन्दजी छाबड़ा, इन्दौर कुल राशि १४,५११ प्रकाशकीय (तेतीसवाँ पुनर्सम्पादित संस्करण) देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान की अर्चना में समर्पित सर्वाधिक बिक्रीवाली कृति 'जिनेन्द्र अर्चना' को नये परिवेश में प्रस्तुत करते हुए हम अत्यधिक गौरव एवं प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हैं। जिनेन्द्र पूजन गृहस्थ/श्रावक के षट् आवश्यक कर्तव्यों में सर्वप्रथम कर्तव्य है। पापों से बचने हेतु तथा वीतराग भाव के पोषण हेतु यही एकमात्र आलम्बन है, अतः समाज में हजारों वर्षों से भाव एवं द्रव्यपूजन की परम्परा चली आ रही है। ___ आद्य-स्तुतिकार आचार्य समन्तभद्र ने स्वयंभू-स्तोत्र जैसी अमर कृतियों में जैन न्याय सिद्धान्तों का उल्लेख करते हुए उत्कृष्टतम स्तुतियों की रचना की है। अनेक प्राचीन एवं अर्वाचीन कवियों ने भी अपनी काव्यप्रतिभा से विभिन्न प्रकार की पूजाएँ रचकर पूजन साहित्य को समृद्ध किया है, जिनमें पण्डित द्यानतराय एवं पण्डित बृन्दावनदासजी विशेष उल्लेखनीय हैं। मुद्रण प्रणाली के विकास ने पूजन संग्रहों के प्रकाशनों को सुलभ अवसर प्रदान किये हैं; अतः समाज में सैकड़ों पूजन संग्रह उपलब्ध हैं। इस संकलन का प्रथम संस्करण ६ अक्टूबर १९८१ को प्रकाशित किया गया था। तब से अबतक इसके बत्तीस संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं, जो इसकी उपयोगिता एवं लोकप्रियता का प्रबल प्रमाण हैं। समाज ने अपनी जिनेन्द्र भक्ति की अभिव्यक्ति और पुष्टि में इस संकलन का भरपूर उपयोग करके हमें प्रोत्साहित किया है, अतः हम उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। हमारे अनेक सुधी पाठकों द्वारा इसके संबंध में समय-समय पर अनेक सुझाव प्राप्त होते रहे हैं, जिन्हें ध्यान में रखते हुए इस तैतीसवें संस्करण में आवश्यक संशोधन कर दिये गये हैं तथा आवश्यक सामग्री जोड़कर इसे और भी अधिक उपयोगी बना दिया गया है। १.००१ मुद्रक : प्रिण्ट 'ओ' लैण्ड, बाईस गोदाम, जयपुरPage Navigation
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