Book Title: Jinavani Author(s): Harisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt Publisher: Charitra Smarak Granthmala View full book textPage 5
________________ आयन्नि खणद्धं पि, थिरं ते करंति अणुरायं । परसमया तहवि मणं, तुह समयन्नृणं न हरंति ॥ - ऋषभपंचाशिका, ३९ । (हे जिनदेव ! ) आधी क्षणके लिये सुने हुए भी औरकि ( अन्य धर्मियोंके ) आगम तेरे ऊपरके अनुरागको स्थिर करते हैं । और इस लिये जो तेरे सिद्धान्तको जानते है उनके चित्तको वे (और के आगम) आकर्षित नहीं कर सकते । .Page Navigation
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