Book Title: Jinanam Panchkalayanakani Author(s): Shilchandrasuri Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 5
________________ ४८ अनुसन्धान-४० आन्यौ सुची जिनरूप देखत नयन नृपति न पूजए तव परम हरषित हृदय हरनां सहस लोचन ह जए । तिहं करहि प्रनाम जु प्रथम इंद्र उत्संग धरि प्रभु लीनीओ सौधर्म अरु ईशान इंद्र जु छत्र प्रभु शिर दीनीओ ॥६॥ सनतकुमार भाहिंद चमर दोइ ढार हैं शेष शक जयजयरव शब्द उच्चारहै । उत्सव सहित चतुरबिध सुर हरखित भए जोजन सहस निन्यायूं सुर उलंघए ॥७॥ गए सुरगिरि जहां पांडुकबन बिचित्र बिराजए पांडुकसिला तिहां अर्धचंद्र समान रवि छबि छाजए । जोजन पंचास बिसाल दुगुणायाम वसु ऊँची गने वर अष्टमंगल कनक कलस तिहां सिंहपीठ सुहावने ||८|| रचि मंडप सोभित मध्य सिंहासनं थाप्यो पूरवमुख तिहां प्रभु कमलासनं । वाजत ताल मृदंग वयन घोषना थते दुंदुभि प्रमुख मधुर धुनि और जूं बाजते ॥९॥ बाजहिं निबाजहि सुचिय सच(ब?)मिली धवलमंगल गावहीं तहां करहिं नृत्य सुरंगना सब देव कौतुक आवहीं । वर खीर सागर जल जु निरमल हाथ सुरगन लावहीं सौधर्म अरु ईशान इंद्रसु कलस लेइ प्रभु नावहीं ॥१०॥ बदन उदर अवगाह कलसगत जानीइं एक च्यार वसु जोजनमान प्रमानीइं । सहस अट्ठोत्तर कलस प्रभूजीके शिरें दरें फुनि शृंगार प्रमुख आचार सवें करें ॥११॥ करै प्रगट प्रभु महिमा महोत्सव आनि फुनि मातहि दयौ धनपतिहिं सेवा राखि सुरपति आप सुरलोकें गयौ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10