Book Title: Jinanam Panchkalayanakani
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 8
________________ जुलाई-२००७ मध्यपदेश तिहां मणिमय पीठ तिहां बनी गंधकुटी सिंहासन कमल सोहावनी । तीन छत्र सिर शोभित त्रिभुवन मोहए । अंतरिक्ष कमलासन प्रभु तिहां सोहए ॥३॥ सोहए चौसठ चमर ढालत अशोकतरुवर छाजहीं सुर पुप्फ वरषित प्रभामंडल कोटि रवि छबि छाजहीं । इम अष्ट अनुपम प्रातिहारिज वरविभूति विराजही इम घातिया खय जाति अतिशय दश विचित्र विराजही ॥४॥ सकल अरधमागधीय भाषा जानीइं सकल जीव जगमैत्रीभाव बखानीइं । सविरतिग फल कुन बतिस नपति मनोहरे दरपन सम बनि अवनि पवन गति अनुसरे ॥५॥ अनुसरे परमानंद सबकुं नारि नर जे सेवता योजन प्रमाणे धरणि सुरचित रचहि मारुत देवता तिहां करे मेघकुमार गंधोदक सुवृष्टि सोहावनी पदकमल तलि सुर रचित कमलसु नव धरणि सोभा बनी ॥६।। अमल गगनतलि और दीसें तिहां अनुसारहीं चतुर तिहां देवतन सुर आकारहीं । धर्मचक्र चले आगे रवि जिहां लाजहीं फुनि श्रृंगार प्रमुख वस्तु मंगल राजही ॥७॥ राजहि ते चौदे चार अतिसय देवरचित सुहावने जिनकेवलीके ग्यान महिमा और कहन कहा बने । तब इंद्र आइ कीयो महोत्सव सभा शोभित अति बनी धर्मोपदेश दीओ तिहां उछली वाणी जिनतणी ॥८॥ क्षुधा तृषा अरु रागद्वेष असोहावने जनम जरा अरु मरन दोष भय आवने । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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