Book Title: Jinanam Panchkalayanakani
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 9
________________ ५२ रोग शोग भय विस्मय और निद्रा हनी स्वेद सखेद मद मोह आरति चिंतागनी || ९ || गनी ए अट्ठारे दोष तिन कर रहित देव निवरेजनो नव परम केवल लबधिं मंडित शिवरमनि मनरंजनो । श्रीग्यान कल्यानक सुमहिमा सुनत सब सुख पाईए त्रैलोक्यनाथ सुदेव जिनवर जगत मंगल गाईए ॥१०॥ इति श्री चतुर्थकल्याणकं ॥ ॥ केवल दृष्टि बराबर देख्यौ जारिसौ भविजन प्रति उपदेश दीइ जिन तारिसौ । जे भवि नित्य भविकजन सरण जु आइआ रतनत्रय गुणलछन शिवपथ लाइआ ॥ १॥ ते लाइयो पंथ जु भविक जन तिहां तृतीय सकल सिधारीयो तिहां तेरह गुण छांडि अयोगि पंथ पग धारीयौ । चौदमे चोथे सकलबल प्रभु बहुतर ते रहेती एम घाति विसु विधि करम पोहोचे समयमे पंचमगती ॥२॥ लोक शिखर तनुवात विलंबे ठीओ धरम द्रव्य बन्यौ आगे गवन न तन कीओ । मदन रहित मेषोदर अंबर जारिसो कर्म्मविहीन निज तन ते भयो प्रभु तारिसी || ३ || अनुसन्धान-४० तारिसौ परजय नित्य अविचल अरथ- परजय छनछए इम नैव दृष्टि अनंत-गुन व्यवहार- नैव सगुण मए । वस्तू स्वभाव विभाव-विरहित शुद्ध परिणति परिणयौ चिद्रूप परमानंद मंदिर शुद्ध परमातम भयो ||४|| तनु परिमाणु दामिनि पर सो विखर गए रहे सिख-नख- केसरूप जे परिनए । तब हरि प्रमुख चतुर्विध सुरगण सुभ रच्यौ मायामय नख केस सहित प्रभु तन रच्यौ ॥५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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