Book Title: Jinanam Panchkalayanakani
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-४० कविरूपचन्द्रकृत जिनानां पंचकल्याणकानि (दिगम्बर आम्नायानुसारी) सं. विजयशीलचन्द्रसूरि कच्छना विहार दरम्यान कोई कोई स्थाने कोई पुराणी प्रतिओ जोवा अनायास मळी गई, तेमां अमुकनी नकल करावेली, तेमांनी एकनुं सम्पादन अत्रे प्रस्तुत छे. आमां जैन तीर्थंकरनी 'पांच कल्याणक' तरीके प्रसिद्ध एवी पांच जीवन-घटनाओ- बयान करती गेय गीत-रचना छे. आ प्रकारनी रचनाओ तो जैन कविओए घणी रची होय छे अने ते प्रसिद्ध पण होय ज छे. परन्तु आ रचनानी विशेषता ए छे के ए दिगम्बर जैन मतने अनुसरती रचना छे. आ रचना प्रसिद्ध नथी एवं लागवाथी ते अहीं आपी छे. पांच कल्याणक ते १. गर्भकल्याणक : जिननो आत्मा देवलोकमांथी नीकळी माताना गर्भरूपे अवतरे ते घटना; एने श्वेताम्बरो "च्यवनकल्याणक' तरीके ओळखे छे. २. जन्मकल्याणक : जिननो जन्म थाय ते क्षणनी घटना. ३. दीक्षाकल्याणक : जिन संसार त्यजीने दीक्षा ले ते घटना; अहीं तेने 'तृतीय कल्यानक' नामे ओळखावेल छे. ४. ज्ञानकल्याणक : दीक्षित जिन उग्र तप द्वारा कर्मक्षय करवापूर्वक केवलज्ञान मेळवे ते घटना; अहीं ते 'चतुर्थकल्याणक' तरीके ओळखावेल छे. ५. मोक्षकल्याणक : जिन मृत्यु पामी मोक्षपद प्राप्त करे ते घटना. आ पांचे घटनाओने कल्याणक एटला माटे कहेवाय छे के ते घटना घटे ते क्षणे समग्र जीवसृष्टिने आनन्द, सुख अने शातानो, क्षणिक ज, पण अकल्पनीय अनुभव थतो होय छे. जगतनुं कल्याण जेनाथी थाय तेनुं नाम कल्याणक ! . जैनोनी बे धाराः श्वेताम्बर अने दिगम्बर: सवस्त्र मार्ग अने निर्वस्त्र मार्ग. बन्ने मते कल्याणक पांच ज; पण प्रासंगिक मान्यताभेद खरो. दा.त. गर्भकल्याणकना प्रसंगमां श्वेताम्बरो जिन-माताने १४ स्वप्न आव्यां एवं माने, तो दिगम्बरो १६ स्वप्न माने. आवा मतभेदो जोवा मळे. प्रस्तुत रचना कवि रूपचन्द्रजीए रची छे. तेमनो सत्ताकाल जाणवा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जुलाई-२००७ मळतो नथी; दि. साहित्यमा तपासतां मळवानो पूरो सम्भव. प्रतिनो ले.सं. १८६८ छे, तेथी ते पूर्वे तेओ थया ते तो स्पष्ट छे. प्रतिना लेखक 'गणि सरूपचंद' छे, तेमणे 'नेमसागर' माटे लखेल छे; आ बन्ने श्वे. आम्नायना मुनिओ होय तेम 'गणि' शब्द द्वारा सूचित थाय छे. आ रचनानी भाषा व्रजमिश्रित खडी हिन्दी जणाय छे. रचना श्रवणमधुर, प्रासादिक तथा भक्तिप्रचुर छे. त्रोटक अने हरिगीत ए बे छन्दोमां समग्र कृति रचाई छे. कल ४८ कडी छे. तोटकमय प्रत्येक कडीनो अन्त्य शब्द, हरिगीतनो आद्यशब्द किंवा उपाड बने छे, ते कविनी काव्यकुशलता प्रत्ये संकेत करनारुं छे. आम तो समग्न प्रतिपादन दिगम्बर मान्यता अनुसारी ज छे. परन्तु जे केटलीक प्राचीन दिगम्बर मान्यताओने ते मतना ज अर्वाचीनो उवेखे छे के ठुकरावे छे, तेमांनी एक प्राचीन दि. मान्यता आ रचनामां पण उल्लिखित जोवा मळे छे. चोथी ढालनी पांचमी कडीमां "सकल अरधमागधीय भाषा जानीइं." आमां जिन अर्धमागधी भाषामा देशना (उपदेश) आपता होवानी वात सूचवाई छे. पण पाछळना दि. मत अनुसार "जिन भाषा बोलता नथी, अने फक्त 'दिव्य ध्वनि' ज तेमना कंठथी प्रगटे छे. तेमज अर्धमागधी भाषा तो साव अर्वाचीन छे." आ बन्ने मान्यता केटली अर्वाचीन छे, तथा ते ज कारणे ते केटली अनुचित के अग्राह्य छे, तेनो खुलासो, एक दि. कविनी ज आ पंक्ति आपी देती जणाय. छे. आ रचनानी पांच पानांनी हस्तप्रतिनी नकल कच्छ-नवावासना भण्डारमाथी उ. श्रीभुवनचन्द्र म.ना औदार्यथी सांपडी छे, ते नोंधवं जरूरी छे. तो साध्वी दीप्तिप्रज्ञाश्रीजीए आ प्रति परथी सुवाच्य प्रतिलिपि लखी आपी छे, ते पण नोंधळू घटे. ॥ अथ दिगंबरमतानुसारी पंचकल्याणकानि कविश्री रूपचंद्रजी कृतानि लिख्यते । पणमवि पंच परमगुरु गुरुजन शासनं सकल सिद्धिदातार हि विघन विनाशनं । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ सारद उर गुरु गौतम सुमति प्रकाशनं मंगलकर हो चौ संघहि पाप प्रणासनं ॥ १ ॥ पापहि प्रणासन गुनहि गिरुओ दोष अष्टादश रह्यो धरी ध्यान कर्म विनाशि केवलग्यांन अविचल जिन लह्यौ । प्रभु पंचकल्यानक विराजत सकल सुरनर ध्याबहि त्रैलोक्यनांथ सुदेव जिनवर जगत मंगल गावहिं ॥२॥ जाके गरभकल्यानक धनपति आईओ अवधिन्यान परवानसुं इंद्र पठाईओ । रचि नव बारह जोजन नयरि सोहावने कनक रयण मणि मंडित मंदिर अति बने || ३ || अति बनें पोलिपगार परिखा सुवन उपवन सोहए नरनारि सुंदर चतुर भेखसु देखि जन मन मोहए । तिहां जनकगृहे छम्मास प्रथमहिं रतनधारो बरषीओ फुनि रुचकबासीजननि सेवा करहिं बहुबिध हरषीओ ||४|| - सुरकुंजर - सम कुंजर धवल धुरंधरो केसरिकेसर शोभित नख शिख सुंदरो । कमला कलस सोवन दोइ दाम सुहावने रवि शशि मंडल मधुर मीन युग पावने ॥५॥ अनुसन्धान- ४० पावने कनक घट जुगम पूरन कमल ललित सरोवरू कल्लोलमाला -कलित सागर सिंहपीठ मनोहरू | रमनीक अमरविमान फुनि पतिभुवन भुव छबि छाजहिं रुचि रतनराशि दीपंति दह दिस तेज पुंज बिराज || ६ || हे सखि सोलह सुपने सूती सें नही निरखी माय मनोहर पछि मरें नहीं । ऊठि प्रभात पिउ पूछयो अवधि प्रकासीओ त्रिभुवनपति सुत होसी फल तिहां भासीओ ॥७॥ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जुलाई-२००७ ४७ भासीओ फल सुनि चित्त दंपति परम आनंदित भए छम्मास परि नबमास फुनि तिहां रयनि दिन सुख सुं गए । गरभावतार महंत महिमा सुनत सब सुख पावहीं त्रैलोक्यनाथ सुदेव जिनवर जगत मंगल गावहीं ।।८।। इति श्रीगर्भकल्यानकं ।। ॥ मति श्रुति अवधि विराजित जिन जब जनमीओ त्रैलोक्य भयौ है क्षोभित सुरगण भरमीओ । कलपवासी-घरि घंट अनाहद वज्जीओ जोइसि-घरि हरिनाद सहि जगल गजिओ ॥१॥ गरज्यो ते सहिजें संखभावन भवन शबद सुहावनै व्यंतर-निलय पटु पटह बज्जै कहत क्यों महिमा बनै । कंपित सुरासुर अवधिबल जिन-जनम निहचें जानियो धनराज तब गजराज मायामही निरमय आनीयो ।।२।। योजन लक्ष गजेंद्र वदन वसु निरमए वदन वदन वसुदंत दंत सिर सर ठए ।। सरसरसो पेणवीस कमलिनी बाजहि कमलिनी कमलिनी कमल पचीस बिराजहीं ॥३॥ राजहीं ति कमलिनी कमल अट्ठोत्तर सौ मनोहर दल बने दलदल अपछर नृत्यहीं सो हाव-भाव सोहावने ।। मणि कनक कंकण वर विचिह्नित अमर मंडित सोहए घन घंट चमरधजा पताका देखि जन मन मोहए ॥४॥ तिहिं करि हरि चढि आयौ सुर परिबारीओ पुरहिं प्रदच्छिना देइ करी जिन जयकारीओ । गुपति जाइ जिन जननीनु सुखनिद्रा रची मायामय शिशु राख्यौ जिन आन्यौ सुची ॥५॥ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ अनुसन्धान-४० आन्यौ सुची जिनरूप देखत नयन नृपति न पूजए तव परम हरषित हृदय हरनां सहस लोचन ह जए । तिहं करहि प्रनाम जु प्रथम इंद्र उत्संग धरि प्रभु लीनीओ सौधर्म अरु ईशान इंद्र जु छत्र प्रभु शिर दीनीओ ॥६॥ सनतकुमार भाहिंद चमर दोइ ढार हैं शेष शक जयजयरव शब्द उच्चारहै । उत्सव सहित चतुरबिध सुर हरखित भए जोजन सहस निन्यायूं सुर उलंघए ॥७॥ गए सुरगिरि जहां पांडुकबन बिचित्र बिराजए पांडुकसिला तिहां अर्धचंद्र समान रवि छबि छाजए । जोजन पंचास बिसाल दुगुणायाम वसु ऊँची गने वर अष्टमंगल कनक कलस तिहां सिंहपीठ सुहावने ||८|| रचि मंडप सोभित मध्य सिंहासनं थाप्यो पूरवमुख तिहां प्रभु कमलासनं । वाजत ताल मृदंग वयन घोषना थते दुंदुभि प्रमुख मधुर धुनि और जूं बाजते ॥९॥ बाजहिं निबाजहि सुचिय सच(ब?)मिली धवलमंगल गावहीं तहां करहिं नृत्य सुरंगना सब देव कौतुक आवहीं । वर खीर सागर जल जु निरमल हाथ सुरगन लावहीं सौधर्म अरु ईशान इंद्रसु कलस लेइ प्रभु नावहीं ॥१०॥ बदन उदर अवगाह कलसगत जानीइं एक च्यार वसु जोजनमान प्रमानीइं । सहस अट्ठोत्तर कलस प्रभूजीके शिरें दरें फुनि शृंगार प्रमुख आचार सवें करें ॥११॥ करै प्रगट प्रभु महिमा महोत्सव आनि फुनि मातहि दयौ धनपतिहिं सेवा राखि सुरपति आप सुरलोकें गयौ । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जुलाई-२००७ जनमाभिषेक महंत महिमा सुनत सब सुख पावहीं त्रैलोक्यनाथ सुदेव जिनवर जगत मंगल गावहीं ||१२|| इति श्री जन्मकल्यानकं द्वितीयं ।। ॥ श्रम जल रहित शरीर सदा सविमल रह्यौ खीरवरन वर-रुधिर प्रथम अक्षित लह्यौ । प्रथम ससिरसहि नान-सरूप बिराजहीं सहज सुगंध सुलच्छन मंडित बाजहीं ॥१॥ बाजहीं अतुल वल परमप्रिय हित मधुर बचन सुहावने दश सहज अतिशय सौभाग्य मूरति बाल लीला अति बने । याबाल त्रिकालपति मुनिरुचित उचित जु नित नए अमरीपति तपति त अनुपम सकल भोग निभोग ए (?) ॥२॥ भव-तन-भोग-विरक्त कदाचित चिंतए धन यौवन पिय पुत्त सकल अनित्य ए । कोउ न सरन मरन-दिन-दुख चिहुगति भर्यो सुख दुख भोक्ता एक जीव विधिवसि पर्यो ॥३॥ परयौ विधिवसि आन चेतन आन जड जु कलेवरू तन असचि परतिहिं होइ आश्रव परहि परिहर संवरू । निर्जरा तप बल होइ समकित बिन सदा त्रिभुवन भमे दुर्लभ विवेक बिना न कबहूं परम धरम विषे रमे ॥४॥ ए प्रभु बारे पावन भावन भाईओ लोकांतिक वर देव सुजोगें आईओ । कुसुमांजलि देइ चरनकमल सिर नाईओ स्वयंबुद्ध प्रभु स्तुति करत हि समझाईओ ||५|| समझाय प्रभुकुं गए निज पद फुनि महोत्सव हरि कीओ रुचि रुचिर चित्र विचित्र शिबिका करसुं नंदनवन लियो । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-४० तहां पंचमुष्टी लोच कीओ प्रथम सिद्ध नती करी मंडिय महाव्रत पंच दुद्धरस सकल परिग्रह परिहरी ॥६॥ मणिमय भाजन केस परीच्छय सुरपति खीर समुद्र-जल खिपि करी गए अमरावती । तप संयमबल प्रभुकुं मनपरजय भयो मौन सहित तप खप करिने लाल कछु तिहां गयो ।।७।। गयो तिहां कछु काल तप बल रिद्ध वसु गुण सिद्ध ए जस धर्मध्यान बलेन खय गए सप्त प्रकृति प्रसिद्ध ए । खपि सातमे गुण जतन बिनु तिहां तीन प्रकृतियौ बुधि बढ्यौ करि करण तीन प्रथम सकल बल क्षपक श्रेणें बल चढ्यौ ।।८।। प्रकृति छत्रीस नवमे गुणठाणे विनासए दशमे सूच्छिम लोभ प्रकृति तिहां आसए । शुकलध्यान पद दूजे फुनि प्रभु पूरीओ बारसमे गुणे सोल प्रकृति तिहां चूरीओ ॥९॥ चूरीओ सठि प्रकृति एह बिधि घातीया करमह तणी तप कीयो ध्यान परवान बारे विधि त्रिलोक शिरोमणी । निष्क्रमण-कल्याणक सुमहिमा सुनत सब सुख पाईए त्रैलोक्यनाथ सुदेव जिनवर जगतमंगल गाईए ॥१०॥ इति श्री तृतीय कल्याणक ॥ ॥ तेरसमे गुणठाणे सयोगि जिनेश्वरू अनंतचतुष्टय मंडित भयो परमेश्वरु । समवसरण तव धनपति बहुबिधि निरमयो आगमजुगति प्रमाण गगनतलि परिठयौ ॥१॥ परिठयौ चित्र विचित्र मणिमय सभामंडप सोहए तिहां मध्य बारे बिने कोठे बनक सुरनर मोहए । मुनि कलपवासिनि आर्यिका तिहां युतिक भौम भुवनत्रिया फुनि भौम भौमि सकल पसु नर पसु त्रिकोट ए बेठिया ॥२॥ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जुलाई-२००७ मध्यपदेश तिहां मणिमय पीठ तिहां बनी गंधकुटी सिंहासन कमल सोहावनी । तीन छत्र सिर शोभित त्रिभुवन मोहए । अंतरिक्ष कमलासन प्रभु तिहां सोहए ॥३॥ सोहए चौसठ चमर ढालत अशोकतरुवर छाजहीं सुर पुप्फ वरषित प्रभामंडल कोटि रवि छबि छाजहीं । इम अष्ट अनुपम प्रातिहारिज वरविभूति विराजही इम घातिया खय जाति अतिशय दश विचित्र विराजही ॥४॥ सकल अरधमागधीय भाषा जानीइं सकल जीव जगमैत्रीभाव बखानीइं । सविरतिग फल कुन बतिस नपति मनोहरे दरपन सम बनि अवनि पवन गति अनुसरे ॥५॥ अनुसरे परमानंद सबकुं नारि नर जे सेवता योजन प्रमाणे धरणि सुरचित रचहि मारुत देवता तिहां करे मेघकुमार गंधोदक सुवृष्टि सोहावनी पदकमल तलि सुर रचित कमलसु नव धरणि सोभा बनी ॥६।। अमल गगनतलि और दीसें तिहां अनुसारहीं चतुर तिहां देवतन सुर आकारहीं । धर्मचक्र चले आगे रवि जिहां लाजहीं फुनि श्रृंगार प्रमुख वस्तु मंगल राजही ॥७॥ राजहि ते चौदे चार अतिसय देवरचित सुहावने जिनकेवलीके ग्यान महिमा और कहन कहा बने । तब इंद्र आइ कीयो महोत्सव सभा शोभित अति बनी धर्मोपदेश दीओ तिहां उछली वाणी जिनतणी ॥८॥ क्षुधा तृषा अरु रागद्वेष असोहावने जनम जरा अरु मरन दोष भय आवने । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ रोग शोग भय विस्मय और निद्रा हनी स्वेद सखेद मद मोह आरति चिंतागनी || ९ || गनी ए अट्ठारे दोष तिन कर रहित देव निवरेजनो नव परम केवल लबधिं मंडित शिवरमनि मनरंजनो । श्रीग्यान कल्यानक सुमहिमा सुनत सब सुख पाईए त्रैलोक्यनाथ सुदेव जिनवर जगत मंगल गाईए ॥१०॥ इति श्री चतुर्थकल्याणकं ॥ ॥ केवल दृष्टि बराबर देख्यौ जारिसौ भविजन प्रति उपदेश दीइ जिन तारिसौ । जे भवि नित्य भविकजन सरण जु आइआ रतनत्रय गुणलछन शिवपथ लाइआ ॥ १॥ ते लाइयो पंथ जु भविक जन तिहां तृतीय सकल सिधारीयो तिहां तेरह गुण छांडि अयोगि पंथ पग धारीयौ । चौदमे चोथे सकलबल प्रभु बहुतर ते रहेती एम घाति विसु विधि करम पोहोचे समयमे पंचमगती ॥२॥ लोक शिखर तनुवात विलंबे ठीओ धरम द्रव्य बन्यौ आगे गवन न तन कीओ । मदन रहित मेषोदर अंबर जारिसो कर्म्मविहीन निज तन ते भयो प्रभु तारिसी || ३ || अनुसन्धान-४० तारिसौ परजय नित्य अविचल अरथ- परजय छनछए इम नैव दृष्टि अनंत-गुन व्यवहार- नैव सगुण मए । वस्तू स्वभाव विभाव-विरहित शुद्ध परिणति परिणयौ चिद्रूप परमानंद मंदिर शुद्ध परमातम भयो ||४|| तनु परिमाणु दामिनि पर सो विखर गए रहे सिख-नख- केसरूप जे परिनए । तब हरि प्रमुख चतुर्विध सुरगण सुभ रच्यौ मायामय नख केस सहित प्रभु तन रच्यौ ॥५॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जुलाई-२००७ रचि अगर चंदन प्रमुख परिमल दर्भ जिन जयकारीयौ पद पतित अगनिकुमार मुगटानिलसु विधि संस्कारीओ / निर्वाण कल्याणक सुमहिमा सुनत सब सुख पाईई त्रैलोक्यनाथ सुदेव जिनवर जगतमंगल गाईए // 6 // ते मतिहीन भगतिवसु भावना भाईए मंगलगीत प्रबंधसु जिनगुन गाईए / जे नर सुनए बखांन सुर मधुर गावही मनवंछित फल सो निश्चय पावही / / 7 / / पावहीं अष्टौसिद्धि नवनिधि मन प्रतीति जो आंनही भ्रमभाव छूटे सकल मनके जिनस्वरूप सुना नहीं / फुनि टरहि पातक हरहि बिघन जुं वरहि मंगल नित नयौ भनें रूपचंद सुदेव जिनवर देव चउसंघहि जयौ / / 8 / / इति श्री जिनानां पंचकल्याणकानि / / // लि / मुनि सरुपचंद गणिना मु / नेमसागर पठनार्थं / / बुधवासरे / सं. 1868 ज्येष्ट वदि अमवास्यां / /