Book Title: Jinanam Panchkalayanakani Author(s): Shilchandrasuri Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 4
________________ जुलाई-२००७ ४७ भासीओ फल सुनि चित्त दंपति परम आनंदित भए छम्मास परि नबमास फुनि तिहां रयनि दिन सुख सुं गए । गरभावतार महंत महिमा सुनत सब सुख पावहीं त्रैलोक्यनाथ सुदेव जिनवर जगत मंगल गावहीं ।।८।। इति श्रीगर्भकल्यानकं ।। ॥ मति श्रुति अवधि विराजित जिन जब जनमीओ त्रैलोक्य भयौ है क्षोभित सुरगण भरमीओ । कलपवासी-घरि घंट अनाहद वज्जीओ जोइसि-घरि हरिनाद सहि जगल गजिओ ॥१॥ गरज्यो ते सहिजें संखभावन भवन शबद सुहावनै व्यंतर-निलय पटु पटह बज्जै कहत क्यों महिमा बनै । कंपित सुरासुर अवधिबल जिन-जनम निहचें जानियो धनराज तब गजराज मायामही निरमय आनीयो ।।२।। योजन लक्ष गजेंद्र वदन वसु निरमए वदन वदन वसुदंत दंत सिर सर ठए ।। सरसरसो पेणवीस कमलिनी बाजहि कमलिनी कमलिनी कमल पचीस बिराजहीं ॥३॥ राजहीं ति कमलिनी कमल अट्ठोत्तर सौ मनोहर दल बने दलदल अपछर नृत्यहीं सो हाव-भाव सोहावने ।। मणि कनक कंकण वर विचिह्नित अमर मंडित सोहए घन घंट चमरधजा पताका देखि जन मन मोहए ॥४॥ तिहिं करि हरि चढि आयौ सुर परिबारीओ पुरहिं प्रदच्छिना देइ करी जिन जयकारीओ । गुपति जाइ जिन जननीनु सुखनिद्रा रची मायामय शिशु राख्यौ जिन आन्यौ सुची ॥५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10