Book Title: Jinabhashita 2005 04
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 2
________________ महानीर जयती पर विोज दर्शन- प्रदर्शन यदि हमें महावीर भगवान् बनना है, तो पल-पल उनका चिन्तन करना अपेक्षित है। ध्यान रखिये, महावीर जयन्ती का आयोजन भले ही चौबीस घण्टे के लिए हो, यदि वह महावीर बनने के लिए है, तो वह दो-तीन दिनों का भी हो सकता है और वह क्रम भी आ सकता है कि आप ३६५ दिन भी महावीर भगवान् के जीवन के लिए समर्पित कर देंगे, तो फिर महावीर बनने में कोई देर नहीं लगेगी। इस प्रकार जितना समय आप महावीर के लिए निकालेंगे, उतना उनकी ओर बढ़ जायेंगे। केवल उनका जय-जयकार ही पर्याप्त नहीं है। महावीर भगवन् का दर्शन-प्रदर्शन और आज तो तीसरा चल पड़ा है। दर्शन अपनी ओर इंगित करता है। दर्शन अपने लिए है, अपनी आत्मा की उन्नति के लिए है, विकास के लिए है और अनुभूति के लिए है। दर्शन अर्थात् देखना किन्तु प्रदर्शन में विशेष देखना नहीं, दिखाना होता है। 'स्व' को देखना होता है। दिखाने में कोई दूसरा होता है। देखनादिखलाना यह 'स्व' और 'पर' की ओर इंगित कर रहे हैं। आपकी क्रियाएँ देखने की ओर नहीं, दर्शन की ओर नहीं, दिखाने की ओर इंगित करती हैं। प्रत्येक व्यक्ति इसी में धर्म निहित मानता है। वह सोचता है कि मैं कम-से-कम एक व्यक्ति को तो समझा दूँ, एक व्यक्ति तैयार हो जाये । वह दूसरे को समझाने के लिए समझता है। इसप्रकार आपकी प्रक्रियाप्रणाली अनादि अनन्त परम्परागत क्रमबद्ध चल रही है। इसलिए मैं जोर देकर कहता हूँ कि क्रमबद्ध पर्याय दिखाने की तो हो रही है, देखने की नहीं, दर्शन के विषय में यदि क्रमबद्ध पर्याय आये, तो उद्धार हो जाये । व्यक्ति जब दार्शनिक बन जाता है, तो वह हजारों दार्शनिकों की उत्पत्ति का कारण बन जाता है और एक व्यक्ति यदि प्रदर्शक बन जाता है, तो लाखों-करोड़ों का प्रदर्शन आरम्भ कर देता है। प्रदर्शन की क्रिया बहुत सरल है । देखा-देखी हो सकती है, इसमें विशेष आयास की आवश्यकता नहीं है। प्रदर्शन के लिए शारीरिक, शब्दिक या बौद्धिक प्रयास पर्याप्त हैं, किन्तु दर्शन के लिए ये तीनों गौण हैं, मौन हैं, उसमें तो आध्यात्मिक तत्त्व प्रमुख है। Jain Education International आचार्य श्री विद्यासागर जी दर्शन के साथ महावीर भगवान् का सम्बन्ध था, प्रदर्शन के साथ नहीं। उन्होंने कितनी साधना की, इसका ढिंढोरा नहीं पीटा। सब कुछ मिलने पर भी यह नहीं कहा कि मुझे बहुत कुछ मिला था। प्रदर्शन करने से दर्शन का मूल्य कम हो जाता है। उसका मूल्यांकन सही यही है कि दर्शन को दर्शन ही रहने दें। दर्शन को यदि प्रदर्शन के साथ सम्बद्ध करते हैं, तो दर्शन का मूल्यांकन समाप्त हो जाता है। प्रदर्शन के साथ यदि दिग्दर्शन होने लगता है, तो उसका मूल्य और भी कम हो जाता है। जब आप दर्शन नहीं करेंगे, तो दूसरे को क्या करवा सकेंगे। प्रदर्शन भी मूल्य रखता है, उसके लिए जिसने दर्शन किया हो। प्रदर्शन दूसरे के लिए होता है, उसमें दूसरे की अपेक्षा रहती है। आपका खान-पान, रहन-सहन आदि प्रदर्शन के जीते-जागते उदाहरण हैं। ऐसे प्रदर्शन से हम अपने जीवन में आकुलता पैदा कर लेते हैं। आपका श्रृंगार भी दूसरे के लिए निर्धारित है। दूसरा देखनेवाला नहीं आयेगा, तो सारे शृंगार फालतू हो जायेंगे। आप दर्पण अपने लिए नहीं, दूसरे के लिए देखते हैं कि मैं अच्छा दीख पडूं। आप मन में यह सोच रहे होंगे कि महाराज तो सारी-की-सारी पोल खोले जा रहे हैं। सही बात यह है कि आपका जीवन अपने लिए नहीं, दूसरों को दिखाने के लिए होता जा रहा है। मुझे यह तो बताइये कि अपने लिए आपका क्या है? आपकी कौन सी क्रिया अपने लिए होती है? जितनी मात्रा में आपकी क्रिया अपने लिए होती है, उतनी मात्रा में आप सही उतरे हैं, बाकी सब ठीक है। आप विचार कीजिये कि चौबीस घण्टों में कौन-सी और कितनी क्रिया रुचिपूर्वक आपकी अपने लिए होती है। जमाना प्रदर्शन में बह गया और बहता चला जा रहा है । दर्शन अनुभूतिमूलक होता है और प्रदर्शन अनुभूतिपरक नहीं होता। दूसरों का दर्शन किया हुआ दिखना होता है। महावीर भगवान् अनुभूति को महत्त्व देते हैं, वे ज्ञान को इतना महत्त्व नहीं देते। वह ज्ञान महत्त्वपूर्ण है, जो अनुभूत हो चुका है, पराया नहीं है। पराया अनुभूत नहीं हो सकता, अपना अनुभूत हो सकता है। अपना ही सब कुछ है, जो पराया है, वह हमारे लिए कुछ नहीं है। वह हमारे लिए कोई मूल्य नहीं रखता। वह है लेकिन हमारे लिए उसका कोई मूल्य नहीं है। महावीर भगवान् का अनन्त ज्ञान भी हमारे लिए सब कुछ नहीं है, कुछ है। हमारे लिए भी जो ज्ञान मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुआ है, वर्तमान में मोक्षमार्ग के लिए वह ज्ञान सब कुछ है। महावीर भगवान् का For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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