Book Title: Jinabhashita 2003 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 11
________________ धार्मिक अनुष्ठानों में प्रतीकों का महत्त्व मुनि श्री चन्द्रसागर जी भूमिका - प्रतीक हमारे जीवन के पथ-प्रदर्शक चिन्ह हैं, । बंदनवार • द्वार की मर्यादा का ज्ञान व अतिथि सत्कार जिन चिन्हों व संकेतों के द्वारा कार्य की गति को प्रगति की दिशा | का महत्व वंदनवार से ही ज्ञात होता है। वहीं पर अतिथि का तक ले जाया जा सकता हैं। बिना प्रतीकों के चलना भारमय सा | अभिनंदन किया जाता है। शुभ मांगलिक कार्यों में बंदनवार तीज लग सकता है। प्रतीक मार्ग में मील के पत्थर का काम करते हैं। | त्यौहारों में आम्र पत्तियों से मार्ग, घर के बाहर, द्वार, आंगन की एक एक प्रतीक में जीवन की सच्चाई छुपी हुई होती है। समझने | शोभा बढ़ाई जाती है। मद के मर्दन की यात्रा बंदनवार दर्शाता है। वाला समझकर मझदार में गिरने से बचकर निकल सकता है। जहाँ मान का मर्दन, विसर्जन, वंदन, अभिनंदन की यात्रा प्रारम्भ प्रतीक जीवन का वह पहलू है जहाँ पर आदर्श छुपा होता हैं। सूत्र | कर आत्म अभिनंदन को प्राप्त करना आम की हरी पत्तियाँ जीवन के समान गहन एवं अनेक अर्थ वाचक होता है। अनेकता में भी | में आशा की तरंग पैदा कर, जीवन को हरा भरा बनाने का पथ एकता का दर्शन हमें प्रतीकों के द्वारा ज्ञात हो जाता है। ये सिन्धु से दर्शाती हैं कि जो भी आयेगा हरा- भरा बन जायेगा इसका अर्थ पार कराने वाले समस्या के समाधान बिन्दु हैं। हिन्दु हो, जैन हो, | यह है कि उसके सम्मान में कोई कमी नहीं रहने पायेगी। मुस्लिम हो, ईसाई हो को कोई भी हो सभी जगह अपनी-अपनी स्वास्तिक- स्वास्तिक शुभ सूचक मंगल वाचक चिन्ह मान्यता के अनुसार प्रतीकों का प्रयोग हुआ करता है। कई प्रतीक | है। उल्टा स्वास्तिक अशुभ, विघनकारी माना जाता है। सीधा सभी जगह एक से हैं समीचीन प्रतीकों, संकेतों से ही हमारा | स्वास्तिक मंगलकारी सुकाल को देने वाला होता है। इसे सांतिया उद्धार हो सकता है। भी कहते हैं। जिससे जीवन में सुख शांति की प्राप्ति हो। इसके दीपक - 'अप्प दीपोभव' का सूत्र अपना दीपक स्वयं | चारों कोने चतुर्गति भ्रमण से छूटने का संकेत देते हैं। प्रभु के बनने का पथ दिखलाता है। स्वयं प्रकाशित होकर दूसरों को | समक्ष स्वास्तिक का समर्पण करना ही चतुर्गति से मुक्त होने की प्रकाशित करें। अकेला एक ही दीपक अंधेरे को उजाले में बदलने प्रार्थना करना है। स्वास्तिक के बीच में जो चार खाली स्थान हैं के लिए पर्याप्त है। तेल और बाती अपना अस्तित्व खोकर जलकर | एवं बीच का वह बिन्दु जो चारों कोनों को जोड़ता है। इस प्रकार प्रकाश देने का, प्रकाशित होने का धर्म निभाना सिखाता है। शरीर | ये पाँच स्थान पंचेन्द्रियों के सूचक हैं। वे पाँच इन्द्रियाँ हैं- (1) मिट जावे पर आत्मप्रकाश कभी नहीं मिटता। दीपक प्रकाश के स्पर्शन (2) रसना (3) घ्राण (गंध) (4) चक्षु (5) श्रोत्र इन द्वारा परोपकार का कार्य करना चाहता है। इसी प्रकार हमें वह | पाँचों इन्द्रियों के विषयों से बचने से इन्द्रिय विजेता बनने का परोपकार करने की सीख सिखाने आता है। जो दिशा का बोध संकेत किया करते हैं। स्वास्तिक स्वस्थ्य रहने की, आत्मस्थ रहने करा दे वह दीपक है नामधारी नहीं कामधारी है। जब तक दीपक | की प्रेरणा देता है जोकि पूज्य पवित्रता का प्रतीक है। में तेल रुपी प्राण रहते हैं तब तक वह जीवित रहकर भटके जनों को प्रकाश देने वाला दाता है। प्रभु के समीप दीपक समर्पण करने स्पर्शन रसना का मतलब इतना ही है कि वह ज्योति प्राप्त हो जो तीनों लोक के इन्द्रिय इन्द्रिय पदार्थों को स्पष्ट रूप से जान सके। वह है केवल ज्ञान ज्योति जहाँ कर्ण इन्द्रिय से आत्मप्रकाश का रास्ता स्पष्ट हो जाता है। जनम, मरण का चक्कर छूट जाता है। दीपक तले अंधेरे वाली युक्ति समाप्त हो जाती है। घ्राण चक्ष और रत्न दीपक की उपमा पा जहाँ प्रकाश ही प्रकाश चहुँ दिशा इन्दिय इन्द्रिय में, अंधेरे का नाम नहीं। -जुलाई 2003 जिनभाषित १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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