Book Title: Jinabhashita 2003 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 20
________________ योगसार-प्राभृत में वर्णित भवाभिनन्दी मुनि प्रस्तुति : पं. रतनलाल बैनाड़ा आचार्य अमित गति ने योगसार प्राभृत में कहा है- मुनि से ऊँचा है। नास्ति येषामयं तत्र भवबीज - वियोगतः। जो भवाभिनन्दीमुनि मुक्ति से अन्तरंग में द्वेष रखते हैं वे तेऽपि धन्या महात्मान: कल्याण फल-भागिनः ।। 24॥ | जैन मुनि अथवा श्रमण कैसे हो सकते हैं? नहीं हो सकते। जैन 'जिनके भवबोजका - मिथ्यादर्शनका-वियोग हो जाने से | मुनियों का तो प्रधान लक्ष्य ही मुक्ति प्राप्त करना होता है। उसी मुक्ति में यह द्वेषभाव नहीं है वे महात्मा भी धन्य हैं - प्रशंसनीय | लक्ष्य को लेकर जिनमुद्रा धारण की सार्थकता मानी गयी है। यदि हैं- और कल्याणरूप फलके भागी हैं।' वह लक्ष्य नहीं तो जैन मुनिपना भी नहीं, जो मुनि उस लक्ष्य से व्याख्या - यहाँ उन महात्माओं का उल्लेख है और उन्हें भ्रष्ट हैं उन्हें जैनमुनि नहीं कह सकते- वे भेषी ढोंगी मुनि अथवा धन्य तथा कल्याणफलका भागी बतलाया है जो भुक्ति में द्वेषभाव | श्रमणाभास हैं। नहीं रखते, और द्वेषभाव न रखने का कारण भवबीज जो मिथ्यादर्शन श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने प्रवचनसार के तृतीय चारित्राधिकार उसका उनके वियोग सूचित किया है। में ऐसे मुनियों को 'लौकिक मुनि' तथा 'लौकिकजन' लिखा है। निःसन्देह संसार का मूल कारण 'मिथ्यादर्शन' है, | लौकिकमुनि लक्षणात्मक उनकी वह गाथा इस प्रकार हैमिथ्यादर्शन के सम्बन्ध से ज्ञान मिथ्याज्ञान और चारित्र मिथ्याचारित्र णिग्गंथो पव्वइदो वट्टदि जदि एहिगेहि कम्मेहि। होता है, तीनों का भवपद्धति-संसार मार्ग के रूप में उल्लेखित सोलोगिगोत्ति भणिदो संजम-तव-संजुदो चावि।।69॥ किया जाता है, जो कि मुक्तिमार्ग के विपरीत है। यह दृष्टिविकार इस गाथा में बतलाया है कि 'जो निर्ग्रन्थरूप से प्रव्रजित ही वस्तु तत्त्व को उसके असली रूप में देखने नहीं देता, इसी से | हुआ है- जिसने निर्ग्रन्थ दिगम्बर जैन मुनिकी दीक्षा धारण की हैजो अभिनन्दनीय नहीं है उसका तो अभिनन्दन किया जाता है और | वह यदि इस लोक सम्बन्धी सांसारिक दुनियादारी के कार्यों में जो अभिनन्दनीय है उससे द्वेष रखा जाता है। इस पद्य में जिन्हें | प्रवृत्त होता है तो तप-संयम से युक्त होते हुए भी उसे 'लौकिक' धन्य, महात्मा और कल्याण फल भागी बतलाया है उनमें अविरत- कहा गया है।' वह पारमार्थिक मुनि न होकर एक प्रकार का सम्यग्दृष्टि तक का समावेश है। सांसारिक दुनियादार प्राणी है। उसके लौकिक कार्यों में प्रवर्तनका स्वामी समन्तभद्र ने सम्यग्दर्शन से सम्पन्न चाण्डाल-पुत्रको आशय मुनि पद को आजीविका का साधन बनाना, ख्याति-लाभभी 'देव' लिखा है- आराध्य बतलाया है, और श्री कुन्दकुन्दाचार्य | पूजादि के लिए सब कुछ क्रियाकाण्ड करना, वैद्यक-ज्योतिषने सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट को भ्रष्ट ही निर्दिष्ट किया है, उसे निर्वाणकी- | मंत्र-तन्त्रादिका व्यापार करना, पैसा बटोरना, लोगों के झगड़े टण्टे सिद्धि, मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। में फँसना, पार्टी बन्दी करना, साम्प्रदायिकता को उभारना और इस सब कथन से यह साफ फलित होता है कि मुक्तिद्वेषी | दूसरे ऐसे कृत्य करने जैसा हो सकता है जो समता में बाधक मिथ्यादृष्टि भवाभिनन्दी मुनियों की अपेक्षा देशव्रती श्रावक और | अथवा योगीजनों के योग्य न हो। अविरत-सम्यग्दृष्टि गृहस्थ तक धन्य हैं, प्रशंसनीय हैं तथा कल्याण एक महत्त्व की बात इससे पूर्वकी गाथा में आचार्य महोदय के भागी हैं। स्वामी समन्तभद्र ने ऐसे ही सम्यग्दर्शन सम्पन्न | ने और कही है और वह यह है कि 'जिसने आगम और उसके सद्गृहस्थों के विषय में लिखा है द्वारा प्रतिपादित जीवादि पदार्थों का निश्चय कर लिया है, कषायों गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो, नैव मोहवान्। को शान्त किया है और जो तपस्या में भी बढ़ा-चढ़ा है, ऐसा मुनि अनगारो, गृही श्रेयान् निर्मोहो, मोहिनो मुनेः॥ भी यदि लौकिक मुनियों तथा लौकिक जनों का संसर्ग नहीं त्यागता 'मोह (मिथ्यादर्शन) रहित गृहस्थ मोक्षमार्गी है। मोहसहित | तो वह संयमी मुनि नहीं होता अथवा नहीं रह पाता है- संसर्ग के (मिथ्या-दर्शन-युक्त) मुनि मोक्षमार्गी नहीं है। (और इसलिए) | दोष से, अग्नि के संसर्ग से जल की तरह, अवश्य ही विकारको मोही-मिथ्यादृष्टिमुनि से निर्मोही-सम्यग्दृष्टि गृहस्थ श्रेष्ठ है।' । प्राप्त हो जाता है:इससे यह स्पष्ट होता है कि मुनिमात्रका दर्जा गृहस्थ से णिच्छिदसुत्तत्थपदो समिदकसाओ तवोधिगो चावि। ऊँचा नहीं है, मुनियों में मोही और निर्मोही दो प्रकार के मुनि होते लोगिगजन संसगंण चयदि जदि संजदोण हवदि।।68॥ हैं। मोही मुनि से निर्मोही गृहस्थ का दर्जा ऊँचा है- यह उससे श्रेष्ठ इससे लौकिक-मुनि ही नहीं किन्तु लौकिक-मुनियों की है। इसमें मैं इतना और जोड़ देना चाहता हूँ कि अविवेकी मुनि से | अथवा लौकिक जनों की संगति न छोड़ने वाले भी जैन मुनि नहीं विवेकी गृहस्थ भी श्रेष्ठ है और इसलिए उसका दर्जा अविवेकी । होते, इतना और स्पष्ट हो जाता है, क्योंकि इन सबकी प्रवृत्ति प्रायः 18 जुलाई 2003 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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