Book Title: Jinabhashita 2003 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 23
________________ श्रेष्ठ आचरण को सामायिक कहा गया है। प्रतिमा आदि के विषय में रागद्वेष का न होना स्थापना सामायिक आचार्यों द्वारा प्रतिपादित सामायिक शब्द की व्युत्पत्ति एवं | है। सुवर्ण तथा मिट्टी आदि में समता परिणाम होना द्रव्य सामायिक परिभाषाओं के आधार पर यह फलितार्थ निकलता है कि समता | है। बाग-बगीचे तथा कण्टक वन आदि अच्छे-बुरे क्षेत्रों में समभाव का भाव ही सामायिक है। यह किसके होता है। इस विषय में | होना क्षेत्र सामायिक है। बसन्त, ग्रीष्म आदि ऋतुओं अथवा दिनकहा गया है रात आदि इष्ट-अनिष्ट काल के विषय में रागद्वेष रहित होना काल तसेसु थावरेषु या तस्स समाइयां हवइइइ केवलीभसियं॥ | सामायिक है और सभी जीवों में मैत्रीभाव का होना तथा अशुभ जो सब प्राणियों के प्रति सम होता है उसे सामायिक की परिणामों का छोड़ना भाव सामायिक है। इन छह प्रकार की सामायिक सिद्धि अर्थात् सामायिकी के लिए मन में किसी भी प्राणी के प्रति | में द्रव्यभाव की प्रधानता है। द्रव्युक्त भाव सामायिक करने वाला कोई विषमता नहीं होती. वह समभाव की साधना में बढ़ता चला | समता के गहन समद्र में इतना गहरा उतर जाता है कि विषमता की जाता है। रागद्वेष तथा अन्य विकार परिणामों को न करके अपने | लपटें उसके पास फटक नहीं सकतीं। यह निश्चित है कि जो ही निजशुद्ध चिदानन्द रूप आत्मा में रमण करता है। सामायिक व्यक्ति द्रव्य सामायिक के साथ-साथ भाव सामायिक का अभ्यासी किसे होती है इसके विषय में और भी कहा गया है "जो बुद्धिमान होता है, वह जीवन के किसी भी क्षेत्र में समभाव से विचलित पुरुष स्व-पर पदार्थों के संबंध के स्वरूप को जानता है जिनागम नहीं होता है। द्रव्य के साथ भाव का मेल होने पर उभयपक्षीय के अनुसार द्रव्य-गुण और पर्याय के स्वरूप को और उनके संबंध समभाव की साधना पूरी होती है तभी व्यावहारिक शुद्धि और के स्वरूप को जानता है, हेय और उपादेय तत्वों को जानता है आत्मविश्वास का अंतिम लक्ष्य पूर्ण हो सकता है। और बंध-मोक्ष कारणों को जानता है उस परम ज्ञानी के सामायिक व्यवहारिक जीवन को नष्ट भ्रष्ट करने में कषायों की मुख्य होती है। इस अध्यात्म साधना के द्वारा आत्मा को पौद्गलिक - भूमिका होती है। क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषायों के कारण वैषयिक सुखों की आसक्ति तथा विषम प्रतिकूल परिस्थिति जन्य मानव सामाजिक भी नहीं रह पाता। क्रोध के कारण मानव आवेश, दुःखों के प्रति द्वेष से विरत करके आध्यात्मिक विकास के चरम संघर्ष आदि में प्रवृत्त होता है। मान के कारण अपने को महान् शिखर तक साधक पहुँच जाता है।" समझता है और दूसरों के साथ घृणापूर्ण व्यवहार करता है, माया सामायिक में द्रव्य-भाव युक्त समत्व साधना का अभ्यास के कारण अविश्वास और अमैत्रीपूर्ण व्यवहार किया जाता है। मुख्य रूप से होता है। द्रव्यसामायिक सामायिक की बाह्य क्रियाओं | लोभ के वशीभूत होकर खोटी प्रवृत्तियों में फंसता है। इन्हीं चारों तथा मन वचन काय की शुद्धता तक सीमित है जबकि विषयभाव | कषायों से सामाजिक जीवन दूषित होता है। मानव के लिए का त्याग कर समभाव में स्थित होना पौद्गलिक पदार्थों का सामाजिक विषमताओं को दूर कर सामाजिक जीवन में समता की सम्यक् स्वरूप जानकर ममता दूर करना और आत्मभाव में लीन स्थापना करना ही अत्यावश्यक है इसीलिए कषायों के उन्मूलन होना भाव सामायिक है। सामायिक के विषय में आचार्य नेमीचंद के लिए सामायिक ही श्रेष्ठ उपाय है। सिद्धान्त चक्रवर्ती ने भी कहा है। पर द्रव्यों से निवृत्त होकर जब सामायिक का मुख्य उद्देश्य भौतिक सुःख-दुःख से छुटकारा साधक की ज्ञान-चेतना, आत्मस्वरूप में प्रवृत्त होती है तभी | पाना है। ऐन्द्रिक विषयों एवं मानसिक विकारों पर विजय पाने के भावसामायिक होती है। पं. आशाधर जी ने भी कहा है- लिए सामायिक अथवा ध्यान से भिन्न कोई दूसरा साधन श्रेष्ठ नहीं सर्वे वैभाविका भावामतोऽन्ये तेएवतः कथम् ? है। सामान्यतः ध्यान और सामायिक एक ही हैं। उनकी बाहरी चिच्चमत्कार मात्रात्मा प्रीत्यप्रीति तनोम्यहम्॥30॥ | आकृति में भिन्नता है और अन्तरात्मा एक है उनमें भेद रेखा अन. धर्मामृत 8 खींचना कठिन है। इसीलिए साम्यभाव में आर्त रौद्र दोनों खोटे औदयिक आदि भाव तथा जीवन मरण आदि ये सब ध्यानों को स्थान नहीं है। आचार्य अमितगति सामायिक के स्वरूप वैभाविकभाव मेरे नहीं हैं। ये मुझसे भिन्न हैं। अतः चिच्चमत्कार पर विचार करते हुए लिखते हैं- समता सर्वभूतेषु संयम: शुभभावना। मात्र स्वरूप वाला मैं इनमें रागद्वेषादि को कैसे प्राप्त हो सकता हूँ। आर्त्तरौद्र परित्यागस्तद्धि सामायिकं व्रतम्॥ सामायिक पाठ सामायिक की साधना को बार-बार के अभ्यास से पुष्ट इन्द्रिय विषयों के निमित्त मिलने पर रागद्वेष न करना संयम रखना। एवं सुदृढ़ बनाने के लिए उसके चार रूपों पर ध्यान देना आवश्यक अन्तर्मुहूर्त में मैत्री आदि शुभ भावना - शुभ संकल्प रखना आत है (1) द्रव्य सामायिक, (2) क्षेत्र सामायिक, (3) काल रौद्र ध्यानों का परित्याग करके धर्म स्थान का चिंतन करना सामायिक सामायिक, (4) भाव सामायिक। इन्हीं चतुः प्रकारीय सामायिक व्रत है। आचार्य हेमचंद्र अन्तर्मुहूर्त के लिए सामायिक करना को पंडित आशाधर जी नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव अनिवार्य मानते हैं। की अपेक्षा से छह प्रकार की साधना करने का विधान देते हैं- | सामायिक के काल में साधक आत्मा को उत्तम अवलम्बन शुभ अशुभनामों को सुनकर रागद्वेष का छोड़ना नाम सामायिक | पर ही आश्रित रखता है। राग (आसक्ति मोह) द्वेष (घृणा, दोष) है। यथोक्त मान उन्मान आदि गुणों से मनोहर अथवा मनोहर | आदि को मन में नहीं आने देता है। सम्मान और अपमान ये दोनों - जुलाई 2003 जिनभाषित 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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