Book Title: Jinabhashita 2003 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 18
________________ जिनबिंब प्रतिष्ठा में सूरि मंत्र का महत्त्व पं. नाथूलाल जैन शास्त्री पं. रतनलाल जी बैनाड़ा ने पत्र द्वारा पूछा है कि सूरिमंत्र कौन दे सकता है ? इसका स्पष्टीकरण निम्नलिखित लेख में किया जा रहा है। प्रमाण यहाँ प्राचीनता के क्रम से दिये जा रहे हैं- । अधिवासनां निष्ठाप्य सर्वान् जनानपसृत्य 1. आचार्य वसुनंदि के प्रतिष्ठा पाठ श्लोक 8-9 में - दिगम्बरत्वावगत आचार्यः स्वस्तययनं पठेत्। आचारादि गुणाधारो, रागद्वेष विवर्जितः। __ अर्थात् अधिवासना पूरी कर वहाँ उपस्थित सम्र्पूण लोगों पक्षपातोज्झितः शांतः, साधुवर्गा ग्रणी गणी॥8॥ को अलगकर (यद्यपि वहाँ दो पर्दे लगे रहते हैं, जहाँ मुख वस्त्र अशेष शास्त्र विच्चक्षुः, प्रव्यक्तं लौकिक स्थितिः। याने प्रतिमा के आगे लगा हुआ पर्दा उठाया जाता है, दूसरा पर्दा गंभीरो मृदुभाषी च, स सूरिः परिकीर्तितः॥9॥ वहाँ रहता ही है) दिगम्बरत्व रूप में प्रतिष्ठाशास्त्र के पूर्व श्लोकों 2. प्रतिष्ठा सारोद्धार (श्री आशाधर कृत) श्लोक 117 में- में जो यहाँ दिये गये हैं, उनके अनुसार अवगत याने पूर्व जाने हुए ऐदं युगीन श्रुतधर, धुरीणो गणपालकः। सूरि अथवा सद्गुरु दिगम्बराचार्य स्वस्त्ययन विधि पढ़ें। पश्चात् पंचाचार परो दीक्षा-प्रवेशाय तयोर्गुरुः॥ श्रीमुखोद्घाटन, प्राण-प्रतिष्ठा, सूरि-मंत्र और अंतिम तपकल्याणक 3. आचार्य जयसेन प्रतिष्ठा पाठ श्लोक 234 से 249 में - | के अन्तर्गत और ज्ञानकल्याणक से पूर्व नेत्रोन्मीलन विधि यही प्रातर्गहीत्वा गुरु पूजनार्थ, वादिननादोल्वणयात्रया सः।। सूरि याने दिगम्बराचार्य देते हैं। यही सप्तम गुण स्थान से 12 वें गुरूपकंठे नतमस्तकेन, भूमिं स्पान वाक्य मपाचरेत सत्॥ गुण स्थान तक की विधि है। यही द्वितीय शुक्ल ध्यान के उपांत्य इत्याद्यभिप्राय वशादुदीर्य व्रतगृहः सद्गुरुणोपदेश्यः। समय दि. मुनि (प्रतिमा) को अर्घ दिया गया है। मंत्रेण बद्धांजलिमस्तकाभ्यां यज्वेन्द्रकाभ्यामपरैर्विधार्यः॥ उक्त दिगम्बरत्वावगत शब्द को लेकर ही विवाद हो सकता 4. श्री नेमीचन्द्र देव प्रतिष्ठा पाठ (दक्षिण में प्रचलित) है। इसी पर से कहा जाता है कि प्रतिष्ठाचार्य दिगम्बर होकर 17-20 श्लोक में सूरिमंत्र दे सकता है। इसके समाधान में हमें यह जानना है कि, चैत्यादि भक्तिभिः स्तुत्वा देवंशेषं समुद्वहन्। अधिवासना के साथ की विधि से जो प्रतिमा में पूज्यता आती है धर्माचार्य समभ्यर्च्य नत्वा विज्ञापयेदिदम्॥ वह क्यों ? वह इसलिये कि प्रतिमा में सातवें गुण स्थान की त्वत्प्रसादात् प्रबुध्याहत्पूजादेर्लक्षणं स्फुटम्। वीतरागता की विधि से पूज्यपना आता है। यहीं प्रतिष्ठा शास्त्र में जिन प्रतिष्ठामिच्छामः कर्तुमेतेऽद्य बालिशाः॥ प्राण प्रतिष्ठा के साथ सूरि मंत्र दिया जाता है, जो वीतराग दिगम्बरत्व उक्त चार प्रतिष्ठा पाठ वर्तमान में प्रचलित हैं। इनके प्रारंभिक की दीक्षा है, और गुप्त रुप में दिया जाता है। इसलिये यहाँ पर श्लोकों में प्रतिष्ठा हेतु सूरि या दि. गुरु का आशीर्वाद व आज्ञा ली इसका उल्लेख प्रतिष्ठा शास्त्र में नहीं मिलता, यह गुरु मंत्र है। यहाँ जाती है। उनके उपदेशानुसार याजक, इन्द्र-प्रतिष्ठाचार्य कार्य करते | गुप्तं भाष्यते इति मंत्रः जो गुप्त रुप में कहा जाता है वह मंत्र हैं। इनमें जो सूरि शब्द है, वह दि. आचार्य या साधु का है। प्रतिष्ठा कहलाता है। के धर्माचार्य दि. साधु होते हैं। दिगम्बर वीतराग मुनि की दीक्षा (मंत्र संस्कार) दिगम्बर सूरिमंत्र से सूरि द्वारा दिया गया मंत्र यह अर्थ निकलता है। मुनि (सूरि) जो आचार्य कहलाता है वही दे सकता है। कोई जयसेन प्रतिष्ठा पाठ में अधिवासना मंत्र संस्कार के समय से अष्ट गृहस्थ चाहे वह नग्न भी हो जाये तो क्या वह मुनि दीक्षा देता है ? द्रव्य से प्रतिमा की पूजा की जाती है। यह सभी जानते हैं। इसका संकेत जयसेन प्रतिष्ठा पाठ श्लोक यह पं. मिलापचन्द्र जी कटारिया ने भी अपनी जैन निबंध | 378-379 में है जो आचार्य (दिगम्बर) द्वारा किया जाता है। रत्नावली पृष्ठ 72 में जयसेन प्रतिष्ठा पाठ की समालोचना में लिखा उक्त स्पष्टीकरण को समझकर अब ऊपर दिगंबरत्वावगत है। वही आशाधर प्रतिष्ठा पाठ पत्र 108 में तिलक दान के बाद शब्द है उसका सही अर्थ दिगंबरत्व से ज्ञात जो पूर्व आचार्य वह याने अधिवासना के साथ अन्य मंत्रों के समय प्रतिमा को नमस्कार | स्वस्ति पाठ और जो यहाँ नहीं लिखे हैं ऐसे प्राण प्रतिष्ठा, सूरिमंत्र करना बतलाया है। इसी समय जयसेन प्रतिष्ठा पाठ पृष्ठ 282 में- | आदि देते है। यहां प्रतिष्ठाचार्य का काम नहीं है। किन्तु पूर्व दि. 16 जुलाई 2003 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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