Book Title: Jeetkalp Sabhashya
Author(s): Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 8
________________ प्रकाशकीय भारतीय वाङ्मय में आगम-साहित्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें अध्यात्म के साथ-साथ समाज, धर्म, दर्शन, आयुर्वेद, भूगोल और संस्कृति के महत्त्वपूर्ण तथ्य प्राप्त होते हैं / सन् 1955 में आचार्य तुलसी ने मुनि नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञ) आदि संतों के साथ इस महायज्ञ को प्रारम्भ किया। इसके फलस्वरूप अनेक आगम ग्रंथ तुलनात्मक संदर्भ के साथ प्रकाश में आ गए। हस्तप्रतियों से सम्पादन-कार्य सरल नहीं है, यह उन्हें सुविदित है, जिन्होंने इस दिशा में कोई प्रयत्न किया है। एक-दो हजार वर्ष पुराने ग्रंथों को सम्पादित करना तो और भी जटिल है, जिनकी भाषा और भावधारा आज के युग से मेल नहीं खाती है लेकिन ज्ञान-धरोहर को संरक्षित एवं संवर्धित करने के लिए हस्तप्रतियों के सम्पादन रूप गुरुतर कार्य को सम्पादित करना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य है। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी का प्रेरणा-पाथेय प्राप्त कर समणी कुसुमप्रज्ञाजी ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किए हैं। गत 30 वर्षों से आगम-व्याख्या-साहित्य के सम्पादन-कार्य में संलग्न समणी कुसुमप्रज्ञाजी ने समाज को अनेक महत्त्वपूर्ण साहित्य-रत्न प्रदान किए हैं और इस कार्य में जैन विश्व भारती हमेशा उनकी सहयोगी रही है। उनके द्वारा सम्पादित ग्रंथ "जीतकल्प सभाष्य" को प्रकाशित करने का सुअवसर भी जैन विश्व भारती को प्राप्त हो रहा है, इसके लिए यह संस्था गौरव का अनुभव करती है। जीतकल्प सूत्र साध्वाचार पर आधारित जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा रचित 103 गाथाओं में निबद्ध एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इस ग्रंथ के अन्तर्गत जीतव्यवहार से सम्बन्धित प्रायश्चित्तों का संक्षेप में वर्णन किया गया है। इसी ग्रंथ पर स्वयं जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा स्वोपज्ञ भाष्य लिखा गया जो जीतकल्प भाष्य के नाम से प्राप्त होता है। यह भाष्य 2608 गाथाओं में निबद्ध है। इस विशाल ग्रंथ के सम्पादन रूप गुरुतर कार्य को समणी कुसुमप्रज्ञाजी ने वैदुष्यपूर्ण ढंग से सम्पन्न किया है। यह कठिन कार्य उनके दृढ़ अध्यवसाय, सघन एकाग्रता और प्रस्फुरित ऊर्जा से ही संभव हुआ है। लगभग 900 पृष्ठों में सम्पादित इस ग्रंथ में 18 परिशिष्ट एवं विस्तृत भूमिका है, जिनमें विभिन्न प्रकार की आवश्यक जानकारी शोध-अध्येताओं को उपलब्ध हो सकेगी। इस श्रमसाध्य कार्य को पूर्ण करने में उन्होंने अहर्निश श्रम किया है। मैं आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के प्रति हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूं, जिन्होंने आगमों के शोधपरक ग्रंथों के प्रकाशन का गौरव जैन विश्व भारती को प्रदान किया। मैं समणी कुसुमप्रज्ञाजी के प्रति शुभकामना करता हूं कि भविष्य में भी जिनशासन की प्रभावना हेतु उनकी श्रुतयात्रा अनवरत चलती रहे और जैन विश्व भारती जन-जन तक आर्षवाणी को पहुंचाती रहे। संस्था परिवार को आशा है कि पूर्व प्रकाशनों की तरह यह प्रकाशन भी विद्वानों की दृष्टि में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा। दिनांक 16-3-2010 अध्यक्ष सुरेन्द्र चोरड़िया जैन विश्व भारती, लाडनूं

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