Book Title: Jeetkalp Sabhashya
Author(s): Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 19
________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 17 समान विशाल हैं। उन श्रुतरत्नों का बिन्दुरूप अथवा नवनीत रूप सार यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। इस उद्धरण से स्पष्ट है कि जिनभद्रगणि के समक्ष तीनों छेदसूत्रों के भाष्य थे। उदधि सदृश विशेषण मूल सूत्रों के लिए प्रयुक्त नहीं हो सकता क्योंकि वे आकार में इतने बड़े नहीं हैं। ___ लगभग भाष्य मूलसूत्र एवं उनकी नियुक्तियों पर लिखे गए लेकिन जीतकल्प भाष्य केवल मूलसूत्र पर है, उस पर नियुक्ति नहीं लिखी गई। कुछ भाष्य केवल नियुक्ति पर भी हैं, जैसे-पिंडनियुक्तिभाष्य और ओघनियुक्तिभाष्य। डॉ. मोहनलाल मेहता ने ओघनियुक्ति पर दो भाष्यों का उल्लेख किया है, जिनमें एक की संख्या 322 है, जो द्रोणाचार्य की टीका समेत नियुक्ति के साथ प्रकाशित है। दूसरे भाष्य की संख्या 2517 है लेकिन वर्तमान में यह भाष्य अप्रकाशित है। ___ छेदसूत्रों पर लिखे जाने वाले भाष्यों में नियुक्ति और भाष्य मिलकर एक ग्रंथ रूप हो गए हैं / यद्यपि चूर्णिकार ने कहीं-कहीं नियुक्ति गाथा का संकेत किया है लेकिन सभी गाथाओं के बारे में निर्देश नहीं है। टीकाकार ने भी 'सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिर्भाष्यं चैको ग्रंथो जात:' का संकेत करके इनको एक ग्रंथ रूप मान लिया है। जैन, विश्व भारती से प्रकाशित व्यवहारभाष्य में नियुक्ति और भाष्य को पृथक् करने का प्रयास किया गया है। प्रकाश्यमान निशीथ भाष्य में भी नियुक्ति और भाष्य को पृथक् करने का प्रयास किया जाएगा लेकिन इस दिशा में और भी अन्वेषण की संभावनाएं हैं। - भाष्यकार के रूप में दो नाम प्रसिद्ध हैं-जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण तथा संघदासगणि। आचार्य जिनभद्र ने दो महत्त्वपूर्ण भाष्यों की रचना की-विशेषावश्यक भाष्य और जीतकल्प भाष्य। मुनि पुण्यविजयजी के अनुसार भाष्यकार चार होने चाहिए -1. जिनभद्रगणि 2. संघदासगणि 3. व्यवहारभाष्य के कर्ता 4. बृहत्कल्प बृहद्भाष्य के कर्ता / अंतिम दो भाष्यकारों के नामों के बारे में उन्होंने कोई उल्लेख नहीं किया . भाष्य के कर्तृत्व के बारे में मुनि पुण्यविजयजी, पंडित दलसुखभाई मालवणिया आदि शीर्षस्थ विद्वानों के द्वारा गहरा विमर्श किया गया है लेकिन फिर भी विशेषावश्यक और जीतकल्पभाष्य के अतिरिक्त शेष भाष्यों के रचनाकार और उनके समय के बारे में मतैक्य नहीं मिलता है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि प्राचीन काल में लेखक बिना किसी नामोल्लेख के कृतियां लिख देते थे। कालान्तर में यह निर्णय करना कठिन हो जाता था कि वास्तव में मूल लेखक कौन थे? कहीं-कहीं एक ही नाम के दो या तीन आचार्य या लेखक होने से भी सही निर्णय करना कठिन हो जाता था। बृहत्कल्प भाष्य की पीठिका में भी मलयगिरि ने भाष्यकार का नामोल्लेख न करके केवल 'सुखग्रहणधारणाय १.जीभा 2607 /

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