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मित्रों! सकडाल, जाति का कुम्हार होने पर भी श्रेष्ठ पुरुषों में गिना जाता था। अगर यह गोशालक के सिद्धान्तों से असहयोग न करता तो दूसरे भोले लोग इस सिद्धान्त के आगे सिर झुका देते और अकर्मण्य वन जाते।
__ आप स्वयं विचार कीजिए कि कर्ता को भूल जाने से क्या काम चल सकता है ? सिर्फ होनहार के भरोसे बैठे रहने से कोई काम बन सकता है ? मैं अभी कह चुका हूं कि होनहार के भरोसे रोटी बनाने का काम दो-चार रोज के लिए भी अगर ये बहनें स्थगित कर दें तो कैसी स्थिति उत्पन्न हो जाय? होनहार पर निर्भर रहकर अगर पुरुष एक दिन भी वस्त्र धारण न करें तो कैसी वीते? नंगा रहने के लिए किसे दण्ड दिया जा सकता है ? जब होनहार को ही स्वीकार कर लिया तो किसी भी अपराध का कर्ता कोई मनुष्य नहीं ठहरता।
नियतिवादी के सामने कोई डंडा लेकर खड़ा हो जाय और उससे पूछे – 'वताओ, यह डंडा तुम्हारे सिर पर पड़ेगा या कमर पर?' वह क्या उत्तर देगा? यही कि जहां तुम मारना चाहोगे वहीं! इससे क्या यह मतलब न निकला कि नियति (होनहार) कर्ता नहीं है। जहां मारने वाला मारना चाहेगा वहीं डंडा पड़ेगा, इससे सिद्ध हुआ कि होनहार मारने वाले के हाथ में है।
आप लोग महावीर के शिष्य होकर भी कहां तक कहते रहोगे कि –'हम क्या करें? हमारे हाथ में क्या है ? जो कुछ होना है वह तो होकर ही रहेगा।' कभी आप काल पर उत्तरदायित्व थोप देते हैं क्या करें, समय ही ऐसा आ गया है!' और कभी स्वभाव का रोना रोने लगते हैं-'लाचारी है, इसका स्वभाव ही ऐसा पड़ गया है!' खेद ! आप महावीर के अनुयायी होकर जड़ पर जवाबदारी डालते हैं ! भूल होती है आपकी और जवाबदारी डाली जाती है जड़ पर, यह कैसी उल्टी समझ है ? आप यह क्यों नहीं कहते कि दोष हमारा है। हम स्वयं ऐसे हैं!
जो मनुष्य अपना दोष स्वीकार कर लेता है उसकी आत्मा बहुत ऊंची चढ़ जाती है। अपनी भूल बताने वाले को अपना गुरु मानो और भूलों का साहस के साथ निराकरण करो तो फिर देखना तुममें कितना चमत्कार आ जाता है।
किसान वर्षा ऋतु आने पर खेत में हल न चलाए तो क्या होगा? अगर वह सोचने लगे कि खेती होनी है, धान्य उपजना है, तो कौन रोक सकता है ? अगर धान्य नहीं उपजता है, तो मेरे प्रयत्न करने पर भी नहीं उपजेगा। दोनों हालतों में मेरा प्रयत्न व्यर्थ है। जैसी होनहार होगी, वही होगा। तव काहे को अपने शरीर का पसीना बहाऊ!
इसी प्रकार जुलाहा भी होनहारवादी बनकर बैठा रहे और जगत् के समस्त कार्यकर्ता यही सोचने लगें तो जगत् के व्यवहार कितनी देर तक जारी रह सकेंगे? कहिए, इस सिद्धान्त से संसार का काम चल सकता है ?
'नहीं चल सकता!'
इस सिद्धान्त को मानकर जनता कहीं अकर्मण्य न बन जाय, यह सोचकर सकडाल को गोशालक के साथ असहयोग करना पड़ा। महावीर का सिद्धान्त उसे रुचिकर और हितकर प्रतीत हुआ। महावीर पुरुषार्थवादी थे। वे आत्मा को कर्ता मानते थे।
मित्रों! सकडाल ने अन्याय से असहयोग कर दिखाया। सकडाल जाति का कुम्हार था। मिट्टी के बर्तनी की ५०० दुकानों का मालिक था। तीन करोड़ स्वर्ण-मोहरों का अधिपति और दस हजार गायों का प्रतिपालक था। ..सदा नीतिपूर्ण व्यवहार का ध्यान रखता था।