________________
• जो राजा प्रजा की रक्षा के योग्य उत्तरदायित्व की परवाह नहीं करता, वह राजा नहीं, लुटेरा है; वह राजभक्ति
का पात्र नहीं हो सकता। • संघर्ग का ध्येय व्यक्ति के श्रेय के साथ समष्टि के श्रेय का साधन करना है। जव समष्टि के श्रेय के लिए व्यक्ति
का श्रेय खतरे में पड़ जाता है तव व्यक्ति के श्रेय का साधन करना संघधर्म का ध्येय वन जाता है। • स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए उत्सर्ग की आवश्यकता होती है। स्वतंत्रता का पथ फूलों से नहीं, कांटों से आकीर्ण
• स्वावलम्बन, स्वतंत्रता की पहली शर्त है, और दूसरों की सहायता की तिल भर अपेक्षा न रखना स्वावलम्वन है। • सत्याग्रह का प्रभाव, मन पर पड़ता है और मन सारे शरीर का राजा है। इसलिए सत्याग्रह द्वारा जो सफलता
प्राप्त होती है, वह स्थायी और शांतिप्रद होती है। • नीति और धर्म, ये दोनों जीवन-रथ के दो चक्र हैं। दोनों में से एक के अभाव में जीवन की प्रगति रुक जाती
• सौ निरर्थक वातें करने की अपेक्षा एक सार्थक कार्य करना अधिक श्रेयस्कर है। • जिस शिक्षा की बदौलत गरीवों के प्रति स्नेह, सहानुभूति और करुणा का भाव जागृत होता है, जिससे देश का
कल्याण होता है और विश्ववन्धुता की ज्योति अन्तःकरण में जाग उठती है, वही सच्ची शिक्षा है। • हिंसा के प्रयोग से या हिंसाजनक अस्त्र-शस्त्र से प्राप्त की हुई विजय स्थाई नहीं रहती। इसके विपरीत प्रेम और
अहिंसा द्वारा जन-समाज के हृदय पर जो प्रभुता स्थापित की जाती है, वह सच्ची और स्थायी विजय है। • उपवास वह है जिसमें कषायों का, विषयों का और आहार का त्याग किया जाता है। जहाँ इन सबका त्याग न
हो–सिर्फ आहार त्यागा जाय और विषय-कषाय का त्याग न किया जाय, वह उलंघन है— उपवास नहीं। • मनुष्य के साथ प्रेम करना, मैत्री स्थापित करना, यही ईश्वर के पथ के कंटकों को बीनना है। ऐसा करके ही __मनुष्य अपने पुराने पापों का प्रायश्चित कर सकता है। परमात्मा के साथ मिलाप होने का भी यही मार्ग है।
• अहंकार का त्याग करके नम्रता धारण करने वाले, मनुष्य रूप में देव हैं; चाहे वे कितने ही गरीब हों। जिसके ___ सिर पर अहंकार का भूत सवार रहता है, वह धनवान् होकर भी तुच्छ है, नगण्य है। • पाप के प्रकाशन से मलीन आत्मा भी निर्मल बन जाती है। • बाहर के पापों को समझना सरल है किन्तु पाप के सूक्ष्म मार्ग को खोज निकालना बड़ा ही कठिन है। बाहर से ___ हिंसा आदि न करके ही अपने को निष्पाप मान बैठना भूल है। • सुभट की अपेक्षा साधु और सम्राट् की अपेक्षा परिव्राट इसीलिए वन्दनीय और पूजनीय है कि सुभट और सम्राट्
क्षेत्र पर विजय प्राप्त करता है जब कि साधु या परिव्राट क्षेत्री अर्थात् आत्मा पर । क्षेत्र या शरीर पर विजय पा लेना कोई बड़ी बात नहीं है परन्तु क्षेत्री अर्थात् आत्मा पर विजय पा लेना अत्यन्त ही कठिन है। • सम्यग्ज्ञान शाश्वत सूर्य है, कभी न बुझने वाला दीपक है। उसके चमकते हुए प्रकाश से मात्सर्य, ईर्ष्या, क्रूरता,
लुब्धता आदि अनेक रूपों में फैला हुआ अज्ञान-अन्धकार एक क्षण भी नहीं टिक सकता है।
-
६६