Book Title: Jainagamo ka Vyakhya Sahitya Author(s): Jinendra Jain Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 7
________________ L जैनागों का व्याख्या साहित्य व की गाथाओं में मिश्रण हुआ है। विशेषावश्यक भाष्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने लिखा है, जो आवश्यकसूत्र के केवल सामायिक नामक प्रथम अध्ययन पर है। इसमें ३६७३ गाथाएं हैं। कालिकश्रुत में चरण-करणानुयोग, ऋषिभाषित में धर्मकथानुयोग और दृष्टिवाद में द्रव्यानुयोग के कथन हैं। महाकल्पश्रुत आदि का इसी दृष्टिवाद से उद्धार हुआ बताया गया है। कौण्डिन्य के शिष्य अश्वमित्र को अनुप्रवादपूर्व के अन्तर्गत नैपुणिक वस्तु में पारंगत बताया है। निहवों और करकण्डू आदि प्रत्येकबुद्धों के जीवन का यहां विस्तार से वर्णन है। दशवैकालिक भाष्य- दशवैकालिकभाष्य की ६३ गाथाएं हरिभद्र की टीका के साथ दी हुई हैं। इनमें हेतुविशुद्धि, प्रत्यक्ष, परोक्ष तथा मूलगुण और उत्तरगुणों का प्रतिपादन है। अनेक प्रमाणों से जीव की सिद्धि की गई है। लौकिक, वैदिक तथा सामयिक (बौद्ध) लोग जीव को जिस रूप में स्वीकार करते थे उसका उल्लेख विस्तार से किया गया है। पिण्डनियुक्तिभाष्य–पिण्डनियुक्ति पर ४६ गाथाओं का भाष्य है, जिसमें पिण्ड, आधाकर्म, औद्देशिक, मिश्रजात, सूक्ष्मप्रभृतिका, विशोधि, अविशोधि आदि श्रमणधर्म विषयक संक्षिप्त विवेचन है। यहां पाटलिपुत्र के राजा चन्द्रगुप्त और उसके मन्त्री चाणक्य का उल्लेख है। ओधनियुक्ति लघुभाष्य- ओपनियुक्ति के भाष्य में ३२२ गाथाओं में ओन, पिण्ड, व्रत, श्रमणधर्म, संयम, वैयावृत्त्य, गुप्ति, तप, समिति, भावना, प्रतिमा, इन्द्रियनिरोध, प्रतिलेखना, अभिग्रह, अनुयोग, कायोत्सर्ग, औपपानिक, उपकरण आदि का विवेचन है। धर्मरुचि आदि के कथानकों और बदरी आदि के दृष्टान्तों द्वारा तत्त्वज्ञान को समझाया गया है। ज्योतिष आदि का प्रयोग भी साधु किया करते थे। इसमें अनेक कथानकों, साधु के आचार एवं लौकिक धर्म में निर्वहन हेतु प्रसंगों का वर्णन किया गया है। ओधनियुक्ति बृहत्भाष्य ओघनियुक्ति-लघुभाष्य में प्रतिपादित विषयों को यहां विस्तार से समझाया गया है। ग्रन्थ के भाष्यकार के संबंध में कोई जानकारी नहीं मिलती। यह भाष्य अप्रकाशित है। पंचकल्प महाभाष्य- यह भाष्य पंचकल्पनियुक्ति के व्याख्यान के रूप में लिखा गया है। इसमें पंचकल्प-लघभाष्य का भी समावेश हो जाता है। जैसे पंचकल्पनियुक्ति कल्पनियुक्ति का ही अंश है, वैसे ही पंचकल्पभाष्य बृहत्कल्पभाष्य का ही अंश है। इस भाष्य के कर्ता संघदासगणि क्षमाश्रमण हैं। इसमें २६६६ गाथाओं में गांच प्रकार के कल्पों का संक्षिप्त विवेचन है। मुनि पुण्यविजयजी द्वारा तैयार कराई गई इस भाष्य की प्रतिलिपि रोमन लिपि में इण्डोलोजिया, बेरोलिनेन्सिस ५ से १५७७ में प्रकाशित हुई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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