________________ जिनागमों का व्याख्या साहित्य ................... 487, प्रशस्ति में इन्होंने अपने को बृहद्गच्छीय उद्योतनाचार्य के शिष्य उपाध्याय आम्रदेव का शिष्य बताया है। अपनी इस रचना को उन्होंने अणहिल नगर (पाटन) में ईसवी सन् 1072 में समाप्त किया। नेमिचन्द्रसूरि वादिवेताल शांतिसूरि के समकालीन थे। आचारांग और सूत्रकतांग पर शीलांकाचार्य की विद्वत्तापूर्ण टीकाएँ हैं। अभयदेवसूरि नवांगीवृनिकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। इन्होंने स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अंतकृद्दशा, अनुत्तरोषपातिक, प्रश्नव्याकरण, विपाक और औपपातिक सूत्र पर वृत्तियाँ लिखी हैं। इस प्रकार आगम और उनकी व्याख्याओं के रूप में लिखे गए इस विशाल साहित्य का अध्ययन-अध्यापन की दृष्टि से विशेष महत्त्व है। जैन मुनियों ने अपने उपदेशों के दृष्टान्तों में इनकी कहानियों का यथेष्ट उपयोग किया है। दूसरे प्रकार की कथाएं पौराणिक कथाएं हैं, जिन्हें रामायण, महाभारत आदि ब्राह्मण ग्रन्थों से लेकर जैनरूप में ढाला गया है। डॉ. विण्टरनित्स के शब्दों में 'जैन टोका साहित्य में भारतीय प्राचीन कथासाहित्य के अनेक उज्ज्वलं रत्न विद्यमान हैं, जो अन्यत्र उपलब्ध नहीं होते।" जैन आगमों के व्याख्या साहित्य की चार विद्याओं के अतिरिक्त और भी विद्याएं बाद में प्रचलित हुई, जो संस्कृत अथवा क्षेत्रीय भाषाओं में निबद्ध थी। यथा-अवचूरि, थेरावली, टब्बा. दीपिका, तात्पर्य, वृत्ति आदि। -प्राकृत एवं जैमागम विभाग जैन विश्वभारतीय संस्थान, लाडनूं (राज.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org