Book Title: Jainagamo ka Vyakhya Sahitya
Author(s): Jinendra Jain
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 11
________________ जैनागमों का व्याख्या साहित्य. 485 की तीसरी शताब्दी माना गया है, और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह रचना वलभी वाचना के लगभग २०० - ३०० वर्ष पूर्व लिखी जा चुकी थीं। प्रस्तुत चूर्णि के मूल सूत्रपाठों, जिनदासगण महत्तर कृत चूर्णि के मूल सूत्र पाठों और हरिभद्र कृत वृत्ति के मूल सूत्रपाठों में कहीं-कहीं अन्तर पाया जाता है। चूर्णि की नियुक्ति गाथाओं के संबंध में यह भी विभिन्नता देखने में आती है कि कितनी हो नियुक्ति गाथाएं ऐसी हैं जो हरिभद्रीय टीका में उपलब्ध हैं, किन्तु दोनों चूर्णिकारों ने उन्हें उद्धृत नहीं किया। प्रस्तुत संस्करण में सूत्र गाथाओं, २७० नियुक्ति गाथाओं तथा चूर्णिगत उद्धरणों की अनुक्रमणिका दी हुई है। प्रस्तावना में अगस्त्यसिंह और हरिभद्र द्वारा स्वीकृत नियुक्ति गाथाओं की तालिका प्रस्तुत है । अनेक वाचनान्तर, पाठभेद, अर्थभेद और सूत्र पाठों के उल्लेखों की दृष्टि से यह चूर्णि महत्त्वपूर्ण है। मुनि पुण्यविजयजी की मान्यता है कि दशवैकालिक सूत्र पर उन दोनों चूर्णियों के अतिरिक्त और भी प्राचीन चूर्णि रही होगी, जिसका उल्लेख दोनों चूर्णिकारों ने किया है। नन्दीचूर्णि - यह चूर्णि मूल सूत्र का अनुसरण करके लिखी गई है। यहां माथुरी वाचना का उल्लेख आता है। बारह वर्षों का अकाल पड़ने पर आहार आदि न मिलने के कारण जैन भिक्षु मथुरा छोड़कर अन्यत्र विहार कर गए थे। दुर्भिक्ष होने पर समस्त साधु समुदाय आचार्य स्कंदिल के नेतृत्व में मथुरा में एकत्रित हुआ और जिसे स्मरण था, उसे कालिकश्रुत के रूप में संघटित कर दिया गया। कुछ लोगों का कथन है कि दुर्भिक्ष के समय श्रुत नष्ट नहीं हुआ था, मुख्य-मुख्य अनुयोगधारी आचार्य मृत्यु को प्राप्त हो गए थे, अनएव स्कंदिल आचार्य ने मथुरा में आकर साधुओं को अनुयोग की शिक्षा दी। अनुयोगद्वारचूर्णि - यह चूर्णि भी मूलसूत्र का अनुसरण करके लिखी गई है। यहां तलवर, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, वापी, पुष्करिणी, सारणी, गुंजालिया, आराम, उद्यान, कानन, वन, गोपुर, सभा, प्रपा, रथ, यान, शिविका आदि के अर्थ समझाए हैं। संगीत संबंधी तीन पद्य प्राकृत में उद्धृत हैं, जिससे पता चलता है कि संगीतशास्त्र पर भी कोई ग्रन्थ प्राकृत में रहा होगा। सात स्वरों और नौ रसों का सोदाहरण विवेचन किया गया है। अनुयोग द्वार के अंगुलपद पर लिखी हुए एक अन्य चूर्णि है, जिसके कर्त्ता सुप्रसिद्ध भाष्यकार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण हैं। यह चूर्णि जिनदासगणि महऩरकृत अनुयोगद्वार चूर्णि में अक्षरश: उद्धृत की गई है। (४) टीका साहित्य निर्युक्ति, भाष्य और चूर्णियों की भांति आगमों पर विस्तृत टीकाएँ भी लिखी गई हैं, जो आगम सिद्धान्त को समझने के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। ये टीकाएँ संस्कृत में हैं, कुछ टीकाओं का कथन संबंधी अंशप्राकृत में भी उद्धृत किया गया है। जान पड़ता है कि आगमों की अन्तिम वलभी वाचना के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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