Book Title: Jainagamo ka Vyakhya Sahitya
Author(s): Jinendra Jain
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 12
________________ 1486. .. जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक पूर्व ही आगमों पर टीकाएं लिखी जाने लगी थी। विक्रम की तीसरी शताब्दी के आचार्य अगस्त्यसिंह ने अपनी दशकालिक चूर्णि में अनेक स्थलों पर इन प्राचीन टीकाओं की ओर संकेत किया है। टीकाकारों में याकिनीसूनु हरिभद्रसूरि (७०५-७७५ ईस्वी सन्) का नाम उल्लेखनीय है, जिन्होंने आवश्यक, दशवैकालिक, नन्दी और अनुयोगद्वार पर टीकाएं लिखीं। प्रज्ञापना पर भी हरिभद्रसूरि ने टीका लिखी है। इन टीकाओं में लेखक ने कथाभाग को प्राकृत में ही सुरक्षित रखा है। हरिभद्रसूरि के लगभग सौ वर्ष पश्चात् शीलांकसूरि ने आचारांग और मृत्रकृतांग पर संस्कृत टीकाएं लिखी। इनमें जैन आचार-विचार और नत्त्वज्ञान संबंधी अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन किया गया है। आगम-साहित्य के संस्कृत टीकाकारों में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का नाम सर्वोपरि है। अन्य टीकाओं में आवश्यकनियुक्ति पर हरिभद्रसूरि और मलयगिरि की उत्तराध्ययन पर वादिवेताल शान्तिसूरि और नेमिचन्द्रसूरि (आचार्यपद प्राप्ति के पूर्व अपर नाम देवेन्द्रगणि) की तथा दशवकालिक सूत्र पर हरिभद्र की टीकाएं विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। हरिभद्र सूरि एक बहुश्रुत विद्वान् थे, जिनका नाम आगम के प्राचीन टीकाकारों में गिना जाता है। विविध विषयों पर उनके अनेक ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। उन्होंने आवश्यक, दशवैकालिक, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, नन्दी, अनुयोगद्वार और पिण्डनियुक्ति (अपूर्ण) पर टीकाएं लिखी हैं। हरिभद्र ने आवश्यक सूत्र पर दो टोकाएं लिखी हैं। यह टीका यद्यपि नियुक्ति को आधार मान कर ही लिखी है, फिर भी जहां तहां भाष्य गाथाओं का भी उपयोग किया है। कहीं- कहीं नियुक्ति के पाठान्तर भी दिए गए हैं। इसके कथानक प्राकृत में ही प्रस्तुत हैं। हरिभद्रसूरि की भांति टीकाओं में प्राकृत कथाओं को सुरक्षित रखने वाले आचार्यों में वादिवेताल शान्तिसूरि, नेमिचन्द्रसूरि और मलयगिरि का नाम उल्लेखनीय है। अन्य टीकाकारों में ई.सन की १२ वीं शताब्दी के विद्वान अभयदेवसूरि, द्रोणाचार्य, मलधारि हेमचन्द्र, मलयगिरी तथा क्षेमकीर्ति (ई.सन १२७५), शान्तिचन्द्र (ई.सन् १५९३) आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इनके टीकाग्रन्थ संस्कृत में प्राकृत उद्धरण सहित प्राप्त होते हैं। कुछ ग्रन्थों की भाषा प्राकृत है। शान्तिसूरि ‘कवीन्द्र' तथा 'वादिचक्रवर्ती' के रूप में प्रसिद्ध थे। मालवा के राजा भोज ने इनकी वाद-विवाद को प्रतिभा पर मुग्ध होकर इन्हें 'वादिवेताल' की पदवी प्रदान की थी। उत्तराध्ययन पर लिखी हुई इनकी टीका में प्राकृत कथानक एवं प्राकृत उद्धरणों को प्रधानता होने से उसे पाइय (प्राकृत) टीका कहा है; नेमिचन्द्रसूरि ने वादिवेताल शान्तिसूरि की पाइयटीका के आधार पर उत्तराध्ययनसूत्र पर सुखबोधा टीका की रचना की। इन्होंने भी अपनी टीका में अनेक आख्यान प्राकत में ही उतधत किये हैं। टीका की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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