Book Title: Jainagam Pathmala Author(s): Akhileshmuni Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra View full book textPage 6
________________ भौतिक ज्ञान और आत्मज्ञान में रातदिन का यन्तर है। मोतिया भान मनुष्य को अपने और परिवार के पेट भरने, अपनी भाजीविका मामाने, अपने लिए सत्ता, महत्ता, पद-प्रतिष्ठा मीर यशकीति प्राप्त करने की कला सिखाता है, भौतिक ज्ञान मनुष्य को विविध विषयों, विज्ञान को शाखाओं का विवरण प्रस्तुत कर देता है; वह भाषाज्ञान से लेकर विविध शिल्पों, फलानों, विद्याओं तथा तकनीकियों में मनुष्य को निष्णात कर देता है; इसके विपरीत आत्मज्ञान मनुष्य को मात्मा से सम्बन्धित तमाम विषयों का अनुमवयुक्त ज्ञान करा देता है । वह विज्ञान, राजनीति आदि तमाम भौतिक ज्ञानों पर अंकुश रखने का एवं हेयोपादेय का विवेक करा देता है । सच्चा ज्ञान मनुष्य को कण्टसहिष्णु. सयमी, विश्ववत्सल, सर्वभूतात्मभूत और आलवनिरोधदक्ष बना देता है। मगर आत्मा के सम्बन्ध में विभिन्न शास्त्रों की बातें या द्रव्यगुण-पर्याय की शब्दावली का कोरा रटना आत्मज्ञान नहीं; उसे तो तोतारटन ही कहा जा सकता है । वह आत्मज्ञान तो तव कहला सकता है, जब शास्त्रज्ञान के साथ आत्मानुभूति हो, उपर्युक्त गुणों से युक्त अनुभव विनान हो, जिससे शरीर और शरीर से सम्बन्धित पदार्थों और आत्मा व आत्मा से सम्बन्धित गुणों व शक्तियों की भिन्नता प्रत्यक्ष अनुभव में आ जाय, समय आने पर म्यान से तलवार की तरह शरीर या शरीर-सम्बद्ध वस्तु को अलग करने में जरा भी झिझक न हो; महापुरुषों के बताये हुए सिद्धान्तों के प्रति पूर्णत: समर्पणवृत्ति हो, उनकी सत्यता में पूर्ण विश्वास हो, साधना से सिद्धिप्राप्त महापुरुषों के अनुभवों को आत्मसात् करने की पूरी तमन्ना हो । यही वास्तविक भेदविज्ञान है। और इसे प्राप्त करने के दो ही कारण हैं--स्वतः प्रेरणा से तथा शास्त्र-गुरु आदि निमित्तों से। आगमों के द्वारा ही महापुरुषों के अनुभव उपलब्ध होते हैं अनुभवी महापुरुष हमारे सामने नहीं हैं, ऐसी दशा में उनके अनुभवों कीPage Navigation
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