Book Title: Jain Vidya 08 Author(s): Pravinchandra Jain & Others Publisher: Jain Vidya Samsthan View full book textPage 2
________________ मुखपृष्ठ - चित्रपरिचय मुखपृष्ठ पर संस्थान के पाण्डुलिपि विभाग की जिस प्रति का चित्र छपा है उसका संक्षिप्त परिचय एवं मुद्रित पत्र का मूल पाठ निम्न प्रकार है— वेष्टन सं. 151 | ग्रंथनाम - करकण्डचरिउ । पत्र सं. 67 । लेखनकाल- सं. 1563 । भाषा-अपभ्रंश । ग्रन्थकार-मुनि कणकामर । विशेष— प्रथम एवं अंतिम पत्र नहीं हैं । वासीइ चंदणाई । परिहरियइ कामुक्कोयणाइ । णासग्गि णिवेसिय लोयणाइ ॥ णिरुजुंजिवि अप्पर परमणाणि । कलरहियइ णिम्मलणहसमाणि ।। घत्ता 1 1 - णियरूवु लहेविणु सो णिवइ, केडिवि कंमणिबंधणइ । सव्वत्थसिद्धि संपत्तुखणे, कणयामरमुणिवरवय लहइ ।। २७ ।। चिरुदियवरवं सुप्पण्णएण चंद्दारिसिगोत्तिं विमलएण । सुपसिद्धणाम कणयामरेण ॥ उप्पाइय जणमणतोसएण जिणचरणसरोरूह भत्तएण ॥ । घर पयडिउ भवियण विणउ णेहु | सोधेविणु पयडहु विविहु तंपि ॥ 1 अप्पाणउ पयडिउ सज्जणाह । महुदीणहो ते सयलु वि खमंत्तु || I वराइयई हुयई दियंवरेण I बहुमंगल एवहो सीसएण आसयरिणयरि संपत्तएण अछंतइ तहि मइ चरिउ एहु मइ सत्थविहीणइ भणिउ किं पि परकज्जुकरणउज्जुप्रमणाह करजोडिवि मग्गइ एउ कहंतु । । घत्ता - जो पढइ सुणइ मणि चित्तवंइ, जणवंए पयडइ एउ चरिउ । सो नरु भुवणयल हो मंडणउ, लहइ सुकित्तणु गुणभरिउ ॥ २८ ॥ जो णवजोव्वणि दिवसहि चडियर्ड, अमरविमाणहो णं सुरु पडियउ | कणयवण्णु ग्रइ मणहरगत्तउ, जसु विजवालु णिरारिउत्तउ ॥ धम्मगततरु सिंचाइ प्रणुदिणु, जो विजवालही णं मुहृदप्पणु । जो अरि णिहणइ दुस्सह लीलई, जसु मणुरंजिइ कुजरकीलए । बंधवइट्ठमित्तजणरोहणु, विभुववालहो जो मणमोह | दाणा जो दुहभंजणु, कण्णणरिदहो ग्रासरंजणु ॥ जो वोलंतउ णिवसह खोहइ, जो ववहारइ नरवइ मोहइ । जो गुरुसंगरे अइसय धीरउ, जो जणिपयडुण कारयहीरउ ॥ जो चामीयरकंकणवरिसणु, जो वंदीयण सहल करिसणु । जो जिणपायसरोरुहमहुयरु, जो सव्वंगु वि णयणह सुहयरु ॥ जो कामिणि वि मम्मि ण मुच्चइ, जो जणि सीलतंरगिणि चुच्चइ । कित्ति भवंतिय कह व ण थक्कइ, जसु गुणलितिण सरसइ थक्कइ ।। तहो ठायहो तहि रल्हे राहुल, मुणिकणयमारपय उब्वोल | धत्ता — तहु अणुराएं यउ चरिउ, मइंजणवए पयडिउं मणहरजं । ते बंधवपुत्तकलत्तमहु, चिरु णंदउ जा रविससहरउ ||२६|| इय करकंडमहारायचरिए मुणिकणयामरविरइए भव्वयणकण्णावयंसे पंचकल्लाणय कप्पतरुफलसंपत्ते करकण्ड सव्वत्थसिद्धिलाभोनाम दहमो संधी, परिछेउ सम्मत्तो ॥ छ ॥ १० ॥ छ ॥ श्रेयकारी || शुभं भवतु ।। लेखक - पाठकयोस्तु || छ । संवत् १५६३ वर्षे माघ वदि १३ तेरसि तिथै बुधवासरे श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे भट्टार........।Page Navigation
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