Book Title: Jain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 7
________________ ( VI ) पांच अध्यायों में इन्हीं विभागों के तीर्थों का वर्णक्रमानुसार अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। ____ कल्पप्रदीप में कुछ ऐसे भी तीर्थों का उल्लेख आया है, जिनके बारे में हमें अन्य ग्रंथों से तो कोई मदद नहीं मिलती, परन्तु पूरातात्त्विक प्रमाणों से उनका जैनतीर्थ होना स्पष्ट है। इस सम्बन्ध में चन्देरी का विशेषरूप से उल्लेख किया जा सकता है। __ प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखन में मुझे विभिन्न विद्वानों का जो सहयोग मिला है, उसके लिए मैं उनका अत्यन्त आभारी हूँ। उन विद्वानों का, जिनकी कृतियाँ इस रचना में सहायक रही हैं, ग्रंथ की पाद-टिप्पणियों में यथासंदर्भ उल्लेख है और ग्रंथ सूची में भी उनके नाम तथा उनकी कृतियों को समाविष्ट किया गया है। प्रस्तुत ग्रंथ के सुचार रूप से लेखन और सम्पादन के सम्बन्ध में अपने पूज्य गुरु प्रो० जगदीश नारायण तिवारी, प्रो० सागरमल जैन और प्रो० एम०ए० ढाकी के प्रति कृतज्ञताज्ञापन उनके महत्त्व को कम करना होगा। शोधकार्य के समय मुझे अपने विभाग के सभी गुरुजनों और पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान के अधिकारियों का सक्रिय सहयोग प्राप्त रहा और उनके द्वारा सदैव प्रोत्साहन मिलता रहा, जिसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ। पूज्य पं० दलसुखभाई मालवणिया, प्रो० कृष्णदत्त बाजपेयी, डा० हरिप्रसाद शास्त्री, स्व० श्री अगरचन्द जी नाहटा, श्री भंवर लाल जी नाहटा, स्व० श्री कैलाशचन्द्र जी शास्त्री, पं० श्री जयराम शास्त्री, डा० हरिहर सिंह आदि का भी मैं अत्यन्त आभारी हूँ जिन्होंने विभिन्न अवसरों पर तत्परतापूर्वक अपनी सहायता और परामर्श से मुझे लाभ पहँचाया है। इस सम्बन्ध में मैं अपने वरिष्ठ मित्रों डा० रमेश चन्द्र गुप्त, डा० अरुण प्रताप सिंह, डा० रवीन्द्रनाथ मिश्र, डा० सीता राम दुबे और डा० जगदम्बा प्रसाद उपाध्याय के प्रति भी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ, जिन्होंने मुझे विभिन्न प्रकार की सहायता प्रदान की। इस ग्रन्थ के प्रकाशन का पूर्ण श्रेय पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान के प्राण प्रो० सागरमल जैन को है, जिन्होंने अनेक कठिनाइयों के उपरान्त भी इस प्रकाशन को संभव बनाया। रामनवमी, २०४९ -शिव प्रसाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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