Book Title: Jain Shravakachar me Pandraha Karmadan Ek Samiksha Author(s): Kaumudi Sunil Baldota Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 3
________________ डिसेम्बर २००८ का विस्तृत विवेचन रत्नशेखरसूरि ने किया है। विवेचन के बीच 'मनुस्मृति', 'परजनों के द्वारा किया हुआ निषेध' तथा 'लौकिकों द्वारा इनका महापातकत्व' भी स्पष्ट किया है। अन्त में अन्यान्य 'खरकर्मों का भी निर्देश है । अन्तिमत: सर्वांगीण व्रतपालन की फलश्रुति भी दी है। इस समग्र विवेचन के ऊपर ब्राह्मण परम्परा का प्रभाव स्पष्टतः दिखायी देता है । पन्द्रह कर्मादानों का स्वरूप : (अ) कर्मादान शब्द का अर्थ : भगवतीसूत्र की टीका के अनुसार, 'कम्मादाणाई' ति कर्माणि - ज्ञानावरणादीन्यादीयन्ते यैस्तानि कर्मादानानि अथवा कर्माणि च तान्यादानानि च - कर्मादानानि कर्महेतव इति विग्रहः । ६ अर्थात् ऐसे कर्म अथवा व्यापार जिनसे ज्ञानावरणादि कर्मों का प्रबल बन्ध होता है । भगवती में स्पष्ट लिखा है कि इन कर्मादानों का सेवन श्रावकों को न स्वयं करना चाहिए, न दूसरों से कराना चाहिए और न करनेवाले अन्य किसी का अनुमोदन या समर्थन करना चाहिए । (ब) पन्द्रह कर्मादानों का स्पष्टीकरण : पन्द्रह कर्मादानों का स्पष्टीकरण श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र की टीका में निम्नलिखित प्रकारसे है - (१) इंगालीकम्म (अङ्गारकर्म) : काष्ठदाह से अंगार बनाना, कोयला बनाना, भाड में ईंटें पकाना, कुम्भकार, लोहकार, सुवर्णकार आदि के कर्मों को भी अङ्गारजीविका कहा है । वणकम्म (वनकर्म) : वन से सम्बन्धित पत्र, पुष्प, फल, कन्द, मूल, तण, काष्ठ तथा बांस आदि का विक्रय करना, वनों को बाड लगाना, बस्ती आदि के लिए जंगल साफ करना, जंगल में आग लगाना, धान्य पीसना आदि । (३) साडीकम्म (वनकर्म) : शकट अर्थात् बैलगाडी, रथ आदि बनाकर बेचने का धन्धा करना । (४) भाडीकम्म (भाटककर्म) : पशु, बैल, अश्व आदि को भाटक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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