Book Title: Jain Shravakachar me Pandraha Karmadan Ek Samiksha
Author(s): Kaumudi Sunil Baldota
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 11
________________ डिसेम्बर २००८ दिगम्बर श्रावकाचार में प्रतिमाओं को केन्द्रस्थान में रखकर श्रावकाचार का प्रतिपादन किया गया है । उसमें स्पष्टतः कहा गया है कि, आरम्भत्यागप्रतिमाधारी श्रावक ने सेवा, कृषि, वाणिज्य आदि घरसम्बन्धी सम्पूर्ण आरम्भ का त्याग करना चाहिए । दसवीं प्रतिधारक श्रावक किसी भी प्रकार के आरम्भकार्य के लिए अनुमति नहीं दर्शाता ।१५ श्रावक जब अपनी आध्यात्मिक प्रगति की ओर ध्यान देकर उत्तरोत्तर आदर्शभूत आचार की तरफ बढ़ता है तब किसी भी प्रकार के व्यवसाय का उसके लिए निषिद्ध होना बिल्कुल तर्कसंगत है । सागारधर्मामृत के अनुसार दर्शनप्रतिमाधारी श्रावक के लिए कहा है कि अष्टमूलगुणों को निर्मल करने के लिए श्रावक मद्य, मांस, मधु और मक्खन आदि का त्याग करें, उसका क्रय-विक्रय न करें तथा इन व्यापारों को अनुमति भी न दे ।१६ जिन चीजों का श्रावक के लिए त्याग कहा है, उन चीजों के व्यापार का निषेध करना तर्कसंगत ही है । उपसंहार और निष्कर्ष : श्वेताम्बरों के पन्द्रह कर्मादान याने विशिष्ट व्यवसायों के निषेध किस प्रकार तर्कसंगत नहीं है, यह इसके पहले इसी शोधलेख में बताया ही है। बहुत सारी तार्किक विसंगतियाँ होने के कारण शायद दिगम्बरों ने सामान्य श्रावक के लिए पन्द्रह कर्मादानों का निषेध नहीं प्रतिपादित किया होगा । दिगम्बर और श्वेताम्बरों के बहुत सारे भेद अभ्यासकों ने प्रस्तुत किए है । उनमें पन्द्रह कर्मादानों का यह मुद्दा भी लक्षणीय है। जिज्ञासु इस पर अधिक गौर करें । प्रत्येक धर्म के दो अंश होते हैं । जो तत्त्वाधार अंश होते हैं वे धर्म के केन्द्रस्थान में रहते हैं और वे त्रिकालाबाधित होते हैं । जो आचारात्मक या कर्मकाण्डात्मक होते हैं वे बाह्य अंश होते हैं, वे कालसापेक्ष तथा परिवर्तनशील होते हैं । आचारांग के समय पन्द्रह कर्मादानों की संकल्पना नहीं दिखायी देती है। मध्ययुगीन सदियों में ब्राह्मणधर्म के प्रभाव से व्यवसायों की ओर उच्चनीचता की दृष्टि से देखने की प्रवृत्ति बढ गयी । काल के परिवर्तन के साथ समाज में परिवर्तन हुए । जब जाति-जातियों में उच्चनीचता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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