Book Title: Jain Shravakachar me Pandraha Karmadan Ek Samiksha
Author(s): Kaumudi Sunil Baldota
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 6
________________ ४२ अनुसन्धान ४६ • लकड़ियों का व्यवसाय, संगमरमर का व्यवसाय, दाल बनाने का व्यवसाय आदि व्यवसाय जैन लोग पीढियों से करते आ रहे हैं। इन व्यवसायों में वे लकडी आदि दूसरों से कटवाते हैं। लेकिन करवाना और अनुमति देना, ये दोनों तो उनको करना ही पड़ता है । इसलिए तीन करण से अतिचाररहित होना संभव नहीं है । यही बात बहुत सारे व्यवसायों के बारे में कही जा सकती है। कोयला बनाना, तेल निकालना, औषधी बनाना आदि व्यवसाय निषिद्ध माने हैं । जैन गृहस्थ को कोयला (आधुनिक काल में रॉकेल, गॅस इत्यादि), तेल आदि का उपयोग रसोई बनाने के लिए तो करना ही पडता है । इससे यह निष्पन्न होता है कि अगर कोयला, तेल आदि दूसरों ने बनवाया तो जैन श्रावक वह चीजें उपयोग में ला सकते हैं। मतलब यह हुआ कि उसमें निहित हिंसा के भागीदार हम नहीं बनना चाहते । दूसरों द्वारा बनायी गयी चीजों का अगर हम इस्तेमाल कर सकते हैं तो खुद को उन चीजों को बनाने का या बेचने का निषेध तर्कसंगत नहीं लगता । किसी भी हिंसक वृत्ति के आधार पर बनायी हुई चीज अगर हम पूरी ही त्यज दें तो उसका व्यवसाय निषिद्ध माना जा सकता है। जैसे कि हस्तिदंत, मृगाजिन, रेशम आदि का जैन लोग सामान्यत: त्याग करते हैं तो उनपर आधारित व्यवसायों को निषिद्ध मानना ठीक है। लेकिन हम शक्कर, गुड, आटा, तेल आदि सब रोज इस्तेमाल करते हैं तो उसपर आधारित व्यवसाय निषिद्ध नहीं माने जा सकते । इन कर्मादानों में 'कृषि' का निर्देश नहीं है । लेकिन हल, कुदाल, जलयन्त्र आदि कषि के औजारों का निर्देश है। भ. ऋषभदेव के द्वारा असि, मसि, कृषि का प्रणयन होने की परम्परा होने के कारण इसमें कृषि का समावेश नहीं किया गया होगा। 'परम्परा से पन्द्रह कर्मादानों की जो सूचि चलती आयी है वह सर्वसमावेशक नहीं है' - इस तथ्य को हरिभद्रसूरि, सिद्धसेनगणि, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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