Book Title: Jain_Satyaprakash 1954 09
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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ऋषि रघुनाथ द्वारा
आचार्य लक्ष्मीचन्द्रको प्रेषित पत्र
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संपा
पूज्य मुनिराज श्रीकान्तिसागरजी ग्वालियर
सचमुच पत्र लिखना भी एक बहुत बडी कला है। जैन मुनियोंने इस प्रेरणाशील कला के विकास में जो योग दिया है, उसमें उनका सांस्कृतिक व्यक्तित्व और प्रतिभाके दर्शन होते हैं । सामान्यतः पत्रों में वैयक्तिक भावनाका ही प्राधान्य रहता है परंतु श्रमणों द्वारा प्रस्तुत पत्र वैयक्तिक होकर भी उनमें जन-भावनाका प्रतिबिम्ब रहता है। वह उनके साधनामय जीवनगत औदार्य का सुपरिणाम है । गुणमूलक-परंपरा के कारण वहां व्यक्ति व्यक्ति न होकर समष्टिमें परिवर्तित हो जाता है। नैतिक जीवनकी व्यापकता एवं सदाचारशील वृत्तिका मूर्त रूप पत्रोंकी एक एक पंक्ति में परिलक्षित होता है। सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिसे इन पत्रोंका अध्ययन किया जाय तो भूगोल, खगोल, इतिहास, पुरातत्त्व, तथा भारतीय लोकचेतनाको उद्बुद्ध करनेवाली अन्वेषणप्रधान प्रचुर मौलिक व विश्वसनीय साधन-सामग्रीका आम मिल सकता है । कवित्व और विशुद्ध साहित्यिक दृष्टिकोण से यदि इनका पर्यवेक्षण करें तो बहुतसे पत्र सरस काव्यों की कोटिमें आ सकते हैं । स्वस्थ सौन्दर्य और कलाके उज्ज्वल आलोकमें देखने पर ज्ञात होगा कि ये पत्र कितने अंशो में सफल रससृष्टि कर आत्मस्थको जगाते हैं | मनोरंजन और गांभीर्यका समन्वय सुंदर विज्ञप्तिपत्र, क्षामणापत्र, और निजी पत्रों में दृष्टिगोचर होता है । स्वदर्शनकी उत्कट प्रेरणा एवं स्वयं द्वारा शासित होनेकी पवित्र भावनाका उदय ऐसे ही पत्रों द्वारा संभव है ।
पुरातन ज्ञानागारोंमें इस प्रकारकी विपुल सामग्री प्रकाशनकी प्रतीक्षा में हैं । कतिपय पत्रोंका प्रकाशन गायकवाड ओरिएंटल सिरीझमें एवं सिंघी ग्रन्थमालान्तर्गत हुआ है । तथापि अप्रकट पत्रोंकी कभी नहीं हैं। कमी है उचित मूल्यांकन करनेवालों की |
आचार्य श्रीजिनचन्द्रसूरि, विजयदेवसूरि, ऋषिकेशवजी आदि पुरुषोंके कतिपय पत्र मेरे संग्रह में हैं जो विशेष ऐतिह्य तथ्योंका भले ही उद्घाटन न करते हों फिर भी उनका अपना महत्त्व है। शोध में सामान्य तथ्य भी कभी कभी घटना विशेषके साथ संबंध निकल आने पर क्रान्तिकारी परिवर्तन कर सकता है ।
यहां जो पत्र प्रकाशित किया जा रहा है वह नागोरी लोकागच्छीय आचार्य श्रीलक्ष्मीचंद्रजीसे सम्बद्ध है। आचार्यने यति श्रीरघुनाथजीको जो पत्र विप्र आभूके साथ भेजा था उसके प्रत्युत्तर स्वरूप प्रस्तुत पत्र है । आचार्यश्री अपने समयके अपने गच्छके प्रतापी
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