Book Title: Jain_Satyaprakash 1954 09
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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અકઃ ૧૨ ] એક નૂતન ગ્રંથ
[૨૩૭ स्वर्गस्त्रिविष्टपं द्योदिवौ भुवि तविषताविषौ नाकः ।
गौस्त्रिदिवमूर्ध्वलोकः सुरालय...............॥ [ टी.] 'स्वर्ग' इति स्वर्गः, त्रिविष्टपं द्यौः ओकारान्तो द्योशब्दः द्यौः, वकारान्तो दिक्शब्दः, एतस्यापि प्रथमैकवचने द्यौरिति रूपम् । भुवि-स्त्रीलिङ्गः, तविषः ताविषः नाकः गौः ओकारान्तो गोशब्दः स्त्रीपुंसलिङ्गः, त्रिदिवं-पुंक्लीबलिङ्गः, उर्ध्वलोकः सुरालयः स्वरव्ययेषु वक्ष्यते ।
इस 'पद्धति को देखते हुए यह निश्चित कहा जा सकता है कि यह टीका विद्वद्मोग्या नहीं है किन्तु बालबोधस्वरूपा ही है।
प्रशस्तिमें लेखकने रचनासंवत्का उल्लेख नहीं किया है किन्तु 'श्रीमद्विजयदेवाख्यः.... साम्प्रतं राजन्ते ।' उल्लेखसे यह निश्चित है कि सं. १६७२ के पश्चात्की यह रचना है ।
प्रस्तुत प्रतिके १२४ पत्र हैं ओर अनुमानतः १८ वीं शतीके पूर्वार्धमें लिखित है। पुस्तक मेरे संग्रहमें ही है।
[अनुसंधान पृष्ठ : २३८ से आगे ] निश्चित है। इनके सीमंधर, वरकाणा, रोहिणी, जीरावला आदि स्तवन तो प्राप्त हैं ही। बड़े ग्रंथोमें कल्पांतर-वाच्य, बाल-शिक्षा और लघु-जातक टीका उपलब्ध हैं। इनमेंसे बालशिक्षा व्याकरण-ग्रंथ है, जैसलमेरके भंडारमें इसकी एकमात्र अपूर्ण प्रति प्राप्त है। इस ग्रंथमें जयानंदसूरिके शब्दानुसार ग्रंथका उल्लेख मिलता है वह भी अभी तक अज्ञात ही प्रतीत होता है। बालशिक्षाकी पूरी प्रति अन्यत्र किसी भंडारमें प्राप्त हो तो सूचित करनेका अनुरोध है । रचनाकालका निर्देश केवल लघुजातक-टीकामें ही मिलता है । यह ज्योतिष ग्रंथकी टीका संवत १५६१ में बीकानेरमें रची गयी।
भक्तिलाभ उपाध्यायके शिष्य चारुचंद्र भी अच्छे विद्वान थे। उनका उत्तमकुमार चरित्र छप चुका है। हमारे संग्रहमें इस ग्रंथकी संवत १५७२में बीकानेरमें स्वयं ग्रंथकारकी लिखित प्रति प्राप्त है। इसकी श्लोक संख्या ५७५ है । ग्रंथकारकी-यह पहली रचना प्रतीत होती है। इनकी अन्य रचनायें इसप्रकार है-(१) भाषाविचार प्रकरण प्राकृत गाथा ४१ सावचूरि; इसकी अपूर्ण प्रति प्राप्त हुई है पत्रांक ३-४ मिले हैं । पत्रांक १-२ नहीं मिले। इसलिए इसकी भी अन्य प्रति अन्वेषणीय है। (२) हरिबल चौपई-रचना संवत १५८१ आसो सुदी ३ जिनहंससूरिराज्ये (३) नंदन मणिहार संधि, गाथा ४०, संवत १५८७ फाल्गुन, (४) रतिसार-चौपई, (५) महाबल मलयासुन्दरीरास गाथा ५१५, (६) पंचतीर्थिस्तव-गाथा २९, संवत १५९८ आश्विन, (७) युगमंधरगीत-गाथा ११.
उपर्युक्त विवेचनसे स्पष्ट है कि भक्तिलाभोपाध्यायका समय पंद्रहवीं शताब्दिका न होकर १६ वो शताब्दिका उत्तरार्ध निश्चित है । भाशा है भविष्यमें वह भूल दुहराई न जावेगी।
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