Book Title: Jain_Satyaprakash 1953 06
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 21
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कडुआ मत पट्टावलीमें उल्लिखित उनका साहित्य लेखक :-श्रीयुत अगरचंद नाहटा श्वे. जैन संप्रदायमें अनेकों गच्छ व सम्प्रदाय हो गये हैं। यद्यपि गच्छोंकी संख्या ८४ कही जाती है पर अन्वेषणप्रेभी विद्वानोंके निकट इस संख्याका कोई मूल्य नहीं, क्योंकि प्रतिमालेखों व ग्रन्थप्रशस्तियों आदिमें जिन जिन गच्छोंका नामनिर्देश पाया जाता है उनको संख्या भी सौसे अधिक है । ८४ गच्छोंके नामकी सूचियों भी एक ही समान नामवाली नहीं पायी जाती और उन सूचियोंके कई नामोंका ता कोई महत्त्व नहीं। वे नाम कई तो अप्रसिद्धसे हैं और कई एक ही गच्छकी शाखाओंके हैं तब सूचीके अतिरिक्त अन्य नाम भी प्रचुर पाये जाते हैं। पीछले पट्टावलीकारोंने एक कल्पना भी खड़ी की है कि उद्योतनसूरिजीने एक ही समय अपने ८४ शिष्योंको आचार्यपद दिया और उस चौरासी आचार्योंकी संतति ही ८४ गच्छके नामसे प्रसिद्ध हुई। पर इस कथनमें भी कोई तथ्य नजर नहीं आता । तत्कालीन कोई प्रमाण इस कथनकी पुष्टि नहीं करता । अस्तु । विशेष खेदकी बात तो यह है कि जिन गच्छोंकी संतति सैकड़ों वर्षों तक चली है, जिनके गच्छोंके विद्वानोंके रचित अनेकों ग्रंथ भी विद्यमान हैं एवं प्रतिमा लेखों व प्रशस्तियोंमें जिनके प्रचुर उल्लेख मिलते हैं । उन गच्छोंकी भी अब पट्टावलियो नहीं मिलती। यह बहुत कम सम्भव है कि जिनकी परंपरा सैकड़ों वर्षों तक चली हो एवं जिनमें बहुत अच्छे विद्वान भी हुए हो उनके अनुयायी विद्वानोंने अपनी परंपरा और आचार्योंका कुछ भी इतिवृत्त नहीं लिखा हो। मेरे ख्यालसे उन पट्टावलियोंकी अनुपलब्धिका प्रधानकारण हमारे खोजशोधका अभाव ही है । हां कई पट्टावलियों नष्ट भी हो गयी है पर खोज करने पर बहुतसे ऐसे प्रभावशाली गच्छों व उनकी शारवाओंकी पट्टावलियोंके मिलनेकी पूर्ण संभावना है। गच्छमतोके संम्बधी कुछ एसे ग्रंथोंका उल्लेख भी कई ग्रंथोंमें देखने में आता है जैसे कविवर समयसुन्दरजीके 'गाथासहस्री' ग्रंथमें एक "गच्छोत्पत्ति प्रकारण" की कई ऐतिहासिक गाथाओंका उद्धरण पाया जाता है उन गाथाओंसे जाना जाता है कि वह प्रकरण वास्तवमें बहुत ऐतिहासिक होगा । इसी प्रकार आहोरके विजयराजेन्द्रसूरि ज्ञानभंडारकी ‘पाडिवालगन्छ । पट्टीवली'जो ७वीं शताब्दीमें रची गयी है । उसमें कई बातें बिल्कुल नवीन ज्ञात होती है और उसके कई वृत्तान्तोके विस्तृत वर्णन जाननके लिए " वृहत् पट्टावली" देखनेको निर्देश किया गया है पर वह प्राप्त नहीं है । " बृहद पट्टावली "के उपलब्ध होने पर बहुत कुछ नया ज्ञान मिलनेकी सम्भावना है। For Private And Personal Use Only

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