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४ १०-११ નિર્માન્ત તવાલક
[२८१ गंभीरता और निःपक्षपातता भी चाहिये । अतः सिद्ध हो गया कि सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र सर्वोत्कृष्ट धर्म-लक्षण है।
धर्म की व्याख्या अत्यन्त विशाल, गंभीर और बडे बडे प्रसिद्ध शास्त्रोंमें वर्णित है।
धर्म की प्रतिकूलता से लोगों का भाग्य भी प्रतिकूल हो जाता है और धर्म की अनुकूलता से प्रतिकूलता भी अनुकूलता में परिणत हो जाती है । संक्षेप में यों कहें कि विश्वकी समस्त वस्तु धर्मके आधार पर स्थिर है तो भी कुछ अत्युक्ति नहीं होगी।
कितने लोगोंने तो धर्मकी अनेक रीतिसे व्याख्या करते करते धर्मके महत्त्वको पार न पाकर अन्त में 'विश्व धर्म प्रतिष्ठितम्' अर्थात् 'जो कुछ है सब धर्म में ही प्रतिष्ठित हैं ऐसा कहा है । और दूसरे विवेकशाली विद्वानोंने माता पिता स्त्री पुत्र मित्र आदि से भी धर्म की अधिकता दिखलाई जैसे
धर्मो विशिष्टः पितृमातृपत्नीसुहृत्सुतस्वामिसहोदरेभ्यः। सनातनोऽयं सह याति मृत्यौ दुःखापहोऽमी पुनरीदृशाश्च ।। धर्मो महामङ्गलमङ्गभाजां धर्मो जनन्युदलिताखिलार्तिः ।
धर्मः पिता पुरितचिन्तितार्थो धर्मः सुहृद्वतितनित्यहर्षः ॥ सारांश यह कि पिता माला पत्नी मित्र स्वामी और भाई से भी धर्म अधिक है, क्योंकि धर्म सनातन (सर्वदा रहनेवाला) है और ये मातापिता आदिक अस्थिर है, धर्म मृत्यु के पश्चात भी साथ जाता है और ये मातापितादिक यहीं रह जाते हैं । धर्म दुःख को वास्तविकरूप से नाश करनेवाला है। शरीरधारियों (खासकर मानवशरीरधारियों) के लिये धर्म महामंगल है अर्थात् शाश्वत सुख को देनेवाला यानी मोक्षका मार्ग है । धर्म ही समस्त पीडाको दूर करनेवाली माता है तथा धर्म ही अभिलषित अर्थ को पूरा करनेवाला पिता है एवं धर्म ही हृदयको आनन्द देनेवाला मित्र है । इसी तरह कोई दूसरे कवि कहते हैं कि
" व्यसनशतगतानां क्लेशरोगातुराणां मरणमयहतानां दुःखशोकार्दितानाम् । जगति बहुविधानां व्याकुलानां जनानां
शरणमशरणानां नित्यमेको हि धर्मः"॥ अनेक व्यसनों (विषय-वासना)से युक्त, क्लेश और रोग से आतुर, मरण के भय से हत, दुःख और शोक से पीडित एवं अनेक प्रकार से व्याकुल तथा जिन्हें कहीं शरण नहीं है ऐसे अशरण जनोंके लिए असार संसारमें नित्यशरण एक धर्म ही है।
इसी प्रकार काव्यकला-कुशल एक तीसरे कविका अभिलाप सुनिये:
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