Book Title: Jain_Satyaprakash 1946 07 08
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 33
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir અંક ૧–૧ | કવિચક્રવર્તી શ્રીપાલરચિત શતાથી कर बड़ी प्रसन्नता हुई। आज तो विचक्रवर्ती श्रीपालको एक नवीन कृतिके रूपमें इसका परिचय कराते और भी अधिक प्रसन्नताका अनुभव होता है । कविपरिचय-आबू तीर्थकी विमलवसहीके शोभितकी मूर्तिके लेखानुसार श्रीपालके पिताका जाम लक्ष्मण था। ये पाटणमें रहेते थे। वहांके नपति गूर्जरेश्वर सिद्धराज जयसिंहके आप बालमित्र थे । सिद्धराज जयसिंह आपको हमेशा 'भ्राता' से संबोधन करते थे । और आपकी लाकोत्तर प्रतिभासे प्रसन्न होकर नृपतिने इन्हें कविराज या कविचक्रवर्ती का पद देकर सम्मानित किया था। सं. ११८१ में सिद्धराज जयसिंहकी सभामें श्वे. देवसूरिजीका दि. कुमुदचंद्र जीसे शास्त्रार्थ हुआ था। इस बाद में भी कविराज श्रीपालने प्रमुख भाग लिया था । कविराजके चर्मचक्षु न थे पर प्रज्ञाकी प्रकर्षतासे आप प्रज्ञाचक्षु थे । आपके रचित १ चतुर्विंशतिजिनस्तुति गा. २९ यमकमय और २ वडनगर प्राकार प्रशस्ति पद्य २९ ही उपलब्ध हैं । इनके अतिरिक्त आपके रचित सहस्रलिंग या दुर्लभ सरोवरकी प्रशस्तिके दो पद्य 'प्रबन्धचिंतामणि' में मिलते हैं। नाभेय-नेमि संधान काव्यका आपने संशोधन किया था। अद्यावधि आपकी लघु रचनायें ही ज्ञात थी, पर आज आपकी एक बड़ी एवं महत्त्वपूर्ण रचनाका परिचय दे रहा हूं। आपके पुत्र सिद्धपाल एवं पौत्र विजयपाल भी कवि थे, जिनके विषयमें श्रीमान् जिनविजयजी लिखित 'द्रौपदी स्वयंवर' की प्रस्तावना पढनी चाहिये । ___ शतार्थीहत्ति-परिचय भूभारीद्धरणो रसातलामः स्वर्गेधशोभावनः सारद्योगपरः प्रभावसविता सत्यागवेष्टोदितः । व्यापन्नौ र ... सिद्धराजवसुधामव्यक्षरामेवली सन्नागः सहरीरसाहितमहोराज्याय साधूरतः ॥१॥ श्रीसिद्धराजेन कृतप्रसादमाज्ञापितः संभृतकौतुकेन । यो निर्ममे वृत्तमिदं शतार्थममर्थ वाक्यं कविराजनामा ॥ २ ॥ अनेकार्थतया क्वापि शब्दानां क्वापि भग्नतः । क्वापि तात्पर्यभेदेन वृत्तस्यास्य शतार्थता ॥३॥ तत्र अर्थानामनुक्रमो यथा—सिद्धराज १, स्वर्ग २, शिब ३, ब्रह्मा ४, विष्णु ५, भवानिपति ६, कार्तिकेय ७, गणपति ८, इन्द्र ९, वैश्वानर १०, धर्मराज ११, नैर्ऋत्त१२, ३. श्रीमान् जिनविजयजीने, लेख अपूर्ण मिलनेसे इस मूर्तिको श्रीपालकी होनेका संभव लिखा है, पर मुनि जयन्तविजयजोने अपने 'अबुद-प्राचीन-जैनलेखसंदोह' पूर्ण लेख प्रकाशित कर इसे शोभित की बतलाई है। For Private And Personal Use Only

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