Book Title: Jain_Satyaprakash 1946 07 08
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 28
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4 IA .[वर्ष ११ vvvvr २८२] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ तावच्चन्द्रबलं ततो ग्रहबल ताराबलं भूबलं तावत्सिद्धयति वाञ्छितार्थमखिलं तावअनः सज्जनः। मुद्रामण्डलतन्त्रमंत्रमहिमा तावत्कृतं पौरुषं यावत्पुण्यमिदं सदा विजयते पुण्यक्षये क्षीयते ।। इस का भावार्थ यह है कि चन्द्रमा का बल, ग्रहोंका बल, ताराओं (नक्षत्रों)का बल और भू (पृथिवी)का बल तब तक रहता है एवं समी इप्सित वस्तुकी सिद्धि तब तक होती है, और तभी तक लोग सज्जन कहे जाते हैं और तभी तक सभी मुद्राओं की तत्रों की तथा मंत्रों की महिमा रहती है एवं तभी तक पुरुषार्थ रहता है और तभी तक मनुष्य सब जगह विजय को पाता है जब तक पुण्य (धर्म) रहता है और धर्मके नाश होने से सभी बल सभी ऐश्वर्य सभी सम्पत्तियां नष्ट हो जाती हैं। इसी तरह चोथे कवि भी धर्मके महत्त्वका वर्णन करते हुए बतलाते हैं. “कुलं विश्वश्लाघ्यं वपुरपगदं जातिरमला मुरूपं सौभाग्यं ललितललनाभोग्यकमला। चिरायुस्तारुण्यं बलमविकलं स्थानमतुलं यदन्यच्च श्रेयो भवति भविनां धर्मत इदम्" । अर्थात् संसार में प्रशंसा के लायक कुल, लीरोग शरीर, उत्तम जाति,सुन्दर रूपरंग तथा सौभाग्य एवं सुन्दर स्त्री तथा भोगयोग्य सम्पत्ति, दीर्घायु, युवावस्था अविकल (पूर्ण) बल और प्रभूत स्थान ये सभी चीजें तथा अन्य भी जो मुखशान्तिकारक श्रेय (माङ्गलिक) पदार्थ हैं वे सभी पदार्थ भावुक धर्मप्रेमियों को धर्म से ही होते हैं अर्थात् धर्मनिष्ठ आदमी को सांसारिक और पारलौकिक सभी उत्तमोत्तम सुख पाप्त होते हैं। __ इसी प्रकार एक पांचवे कवि कहते हैं कि "तोयेनेव सरः श्रियेव विभुता सेनेव सुस्वामिना जीवेनेव कलेवरं जलधरश्रेणीव दृष्टिश्रिया। मासादास्त्रिदशार्चयेव सरसत्वेनेव काव्यं प्रिया प्रेम्णेव प्रतिभासते न रहितो धर्मेण मत्यः क्वचित् "। अर्थात् जैसे नदी जल के बिना नहीं शोभता, लक्ष्मी के विना प्रभुता नहीं शोभती, अच्छे राजा के विना सेना नहीं शोभती, जीव के विना देह नहीं शोभता, वर्षा के विना मेघ-घटा नहीं शोभती, देवपूजा के विना मन्दिर नहीं शोभता, रस के विना काव्य नहीं शोमता, और प्रेम के विना स्त्री नहीं शाभती है उसी तरह धर्म के विना मनुष्य कहीं भी किसी तरह भी नहीं शोभता है, अर्थात् मनुष्यों के सर्वथा शोभाका स्थान र्धम ही है और धर्म ही मनुष्यजीवन का सार है। (क्रमशः) For Private And Personal Use Only

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