Book Title: Jain_Satyaprakash 1945 12
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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'नेमिदूत' के कर्ता विक्रम दिगम्बर थे ?
लेखक:-श्रीयुत अगरचंदजी नाहटा. महाकवि कालिदासकृत 'मेघदूत' काव्यके चतुर्थ चरणको पादपूर्ति रूप विक्रम कविकृत 'नेमिदूत' काव्य पाया जाता है । कवि विक्रम सांगणका पुत्र था इससे अधिक कुछ भी परिचय अपने काव्यमें नहीं देता। काव्यके विषयादिसे यह श्वेताम्बर था या दिगम्बर यह भी जाननेका कोई भी उल्लेख नहीं पाया जाता। पं. नाथुरामजी प्रेमीने अपने 'जैन साहित्य और इतिहास ' ग्रन्थके पृ. ४९३ में इस कविके दिगम्बर होनेका अनुमान किया है । आपके अनुमानका कारण खंभातके चिंतामणि पार्श्वनाथ मंदिरका सं. १३५२ का लेख है। इस लेखमें हुंकार वंशके सांगणका उल्लेख है उसे आपने हुंबड लिखके सिंहपुर वंशको नरसिंहपुरा एवं सहस्रकीर्ति यशकीर्ति नामको दिगम्बर साधु मानकर यह कल्पना की है। पर हमें यह संगत नहीं प्रतीत होती। उक्त लेख श्वेताम्बर मन्दिरमें है। अन्य कई बातों पर विचार करनेसे भी यह लेख श्वेताम्बर सम्प्रदायका ही संभव है। और जहांतक प्रस्तुत सांगण हो विक्रमके पिता है इसका निश्चित प्रमाण नहीं मिले तब तक इस लेखका आधार केवल कल्पनामात्र ही कहा जा सकता है।
प्रस्तुत नेमिदूत ग्रन्थकी प्रतियें भी अभितक श्वे. भंडारोंमें ही अधिक प्राप्त हुई हैं एवं इस काव्य पर श्वे. खरतरगच्छके विद्वान महोपाध्याय गुणविजयजो रचित टीका भी प्राप्त होती है। इससे भी विक्रम कविके श्वेताम्बर होनेकी अधिक संभावना है।
नेमिदूत काव्यकी वृत्ति अद्यावधि साहित्यसंसारमें अज्ञात है। बीकानेरके वैद्यरत्न महो। पाध्याय रामलालजीके संग्रहमें कई वर्ष पूर्व हमने इसका अवलोकन कर अपने युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ग्रंथके पृ. २०० में सर्वप्रथम इसका उल्लेख मात्र किया था। इस लेखमें प्रस्तुत टीकाका परिचय भी दे देना आवश्यक समझकर नीचे उसका आदि अंत एवं प्रतिका परिचय दिया जा रहा है। प्रारंभ-श्रीपाचे प्रणिपत्य सत्यमनसा सानन्दवृंदारकै
वन्ध श्रीगुरुराजबंधुरपदद्वन्द्वं च दोषापहम् । राजीमत्यभिवल्लभोक्तिरचनाविज्ञप्तिरूपात्मकं
सत्काव्यं विविरीषुरस्मि विशदं श्रीनेमिदूताभिधम् ॥१॥ व्याख्या-प्राणित्राणेति व्याख्या-श्रीमान् लक्ष्मीवान् नेमिर्नेमिनाथो जिनः रामगिर्याश्रमेषु-रामो रमणीयो यो गिरिरुज्जयन्ताख्यः पर्वत-स्तस्याश्रमाः ।
अन्त-कालिदासेन सुपदरचितात् शोभनपदविनिर्मितान् मेघदूतात् अन्त्यं अवसानिक पदं वृत्तचतुर्थाशं गृहीत्वा किंभूतो विक्रमाख्यः सांगणात् सांगणेति कविपितुरभिधानं तस्मादाप्तजन्मा आप्तं जन्म येनेति आप्तजन्मा। १२६ वृत्तार्थः । इति नेमिदूतकाव्यवृत्तिः परिपूर्णाभवत् । छ ।
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